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श्री
प्रशमरति प्रकरणम्
।। ५.३ ॥
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विवेचन - धर्म अर्थ काम अने मोक्ष ए चारमां श्रेष्ठ एवा मोक्षप्राप्ति - लक्षण शाश्वत कार्यने इच्छता - अभिलपता पुरुषे पांचे इंन्द्रिय संबंधी जे सघळा विषयो वैराग्य मार्गमां विघ्नकर्ता निवडे के, अर्थात् सम्यग्ज्ञान अने क्रियानुं सेवन करवामां अंतराय करे छे एवा ए विषयो प्राप्त थये छते पण तेमनी क्षणिकता - अनित्यता, निःसारता अने हितकारिता संबंधी सारी रीते आलोचना करता रहेवुं के जेथी तेमां प्रसंग- आसक्ति थवा न पामे. मतलब के दुःख मात्र दूर करी शाश्वत सुखरूप मोक्षनीज इच्छा राखनारे विषयसुखमां अवश्य विरक्तता - निःस्पृहता धारण करवी जोइए. पूर्वोक्त निःस्पृहता, अनित्यादि द्वादश भावनानो सतत् अभ्यास करवाथी प्राप्त यह शके छे तेथी शास्त्रकार उक्त भावनानो अधिकार पत्र प्रस्तावे कहे छे:
भावयितव्यमनित्यत्वमशरणत्वं तथैकतान्यत्वे । अशुचित्वं संसारः कर्मास्रवसंवरविधिश्च ॥ १४६ ॥ निर्जरण लोकविस्तर धर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ताश्च । बोधेः सुदुर्लभत्वं च भावना द्वादश विशुद्धाः ।। १५० ।। भावार्थ - अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, अशुचीत्व, संसार, श्राश्रव, संवर, निर्जरा, लोकस्वरूप, सत्धर्मस्वरूप चिंतन अने सम्यक्त्व - बोधि दुर्लभता - एवी रीते द्वादश विशुद्ध भावना भाववी. १४६ - १५०.
विवेचन -- संसारमां सर्वे स्थानो अनित्य छे. कंइ नित्य नथी ए रीते सदाय दिनरात अनित्यता चिन्तवत्री. जन्म जरा मरणथी पराभव पामेला जीवाने क्यांय शरण नथी ए रोते अशरणता चिन्तववी. ज्ञानदर्शन संयुक्त हुं स्वा
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