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________________ प्रकरणम् श्री नथी, अने ए बर्धा साधनो गृहस्थ लोकोने आधीन रहेलां छे, एटला माटे क्षमादिक धर्म आचरणमां विरोध न भावे प्रशमरति तेम लोकने अनुसरनुं धर्थात् लोकवार्तानुं अन्वेषण कर उचित छे. १३२ से माचरणथी लोकोमा उलटा अप्रिय थवाय तेवां श्राचरण साधुए सावधानपणे तजी देवां एम ग्रंथकार जगावे छे. दोषेणानुपकारी भवति परो येन येन विद्वेष्टिः । स्वयमपि तद्दोषपदं सदा प्रयत्नेन परिहार्यम् ॥१३३॥ भावार्थ - जे जे दोषथी अन्यजन अनुपकारी भने अत्यंत खिन्न थाय ते ते दोषना स्थान सदा पोवेज प्रयत्नथी परिहरवां. १३३ वि- जे जे कार्य करवाथी लोको कुपित थाय ने उलटा सामा थइ जाय ते ते दोषस्थाननो साधुए पोते प्रमाद रहितपणे त्याग करी देवो. अर्थात् जे कारखोने लइने लोकोने अप्रियकारी थतो कोइ अन्य जोवामां आवे एटले ते कार्य जातेज विचारी साधुए साबधानपणे तजी देवुं उचित छे. १३३ एवं जेम श्रा रीते दोषस्थान तजी देवां जरुरनां छे तेम भागळ जणावेली हितशिक्षा पण ख्यालमा राखवानी के एम शास्त्रकार कहे छेःपिण्डेषणानिरुक्तः कल्प्या कल्प्यस्य यो विधिः सूत्रे । ग्रहणोप भोगनियतस्य तेन नैवामयभयं स्यात् ॥१३४ भावार्थ – पिंडनिर्युक्ति सूत्रमां श्राहारादि गवेषणा संबंधी जे विधि कह्यो छे ते मुजब नियमसर आहारादि ग्रहण ॥ ४८ ॥ *+****+***+******+*** Jain Education Intentiofla For Personal & Private Use Only ***++**** ॥ ४८ ॥ w.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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