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________________ श्री प्रशमरति प्रकरणम् ॥४६॥ सम्यग्दृष्टिानी ध्यानतपोषलयुतोऽप्यनुपशान्तः। ते लभते न गुणं यं प्रशमगुणमुपाश्रितो लभते ॥१२७॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि ( सुश्रद्धावान् ), ज्ञानी, ध्यान भने तपोबळ युक्त पण उपशमरहित साधु, जेवो गुण उपशमयुक्त साधु पामे के वो गुण पामी शकतो नथी. १२७. विवेचन-शंकादि दोष रहित सम्यग् दर्शन संपन्न, यथासंभव मति-श्रुतज्ञाने करी युक्त अने शुभध्यान तपोबळ सहित होवा छतां जेना विषय कषायादि दोष उपशान्त थया नथी ते प्रशम गुणवंतनी पेठे निर्मळ ज्ञान चारित्र अने निराकुळता रूप उच्च गुणने प्राप्त करी शकता नथी, तेथी प्रशमसुख मेळववा माटे जरुर प्रयत्न करवो. १२७. फरी पण प्रशमसुखनीज उत्कर्षता प्रगट करवा माटे शास्त्रकार कहे छे के:नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ।। १२८ ॥ अर्थ-राजाधिराजने तेमज देवना पण देवने एवं सुख नथी के जेवू सुख लोकव्यापार रहित साधुने अहिंज साचात् अनुभवाय छे. १२८. विवेचन-राजाना राजा चक्रवर्ती अथवा वासुदेवादिकने तेमज इंद्रने पण एवं सुख नथी के जेवू सुख लोकव्यापार रहित प्रशमरसमा निमय साधुने महीज मनुष्य जन्ममाज सहेजे सांपडे छे. केमके ते चक्रवर्ती प्रमुखनुं सुख तो शब्दादि समृदिवाळ होय छे के जेनी भनित्यता-पणिकता पूर्व जणाववामां भावी छे. वळी शब्दादिक विषयो एकान्ते सुखना हेतुरूप थता ॥४६॥ Jain Education in For Personal & Private Use Only w.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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