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भय भने दुगंच्छाथी दर रहेलो मात्मा जे सुख भनुमवे के ते मन्यने क्याथी होय ११२३-१२६.
विवेचन-शन्दादिक स्वविषयोने इच्छती एवी इन्द्रियोने संतोषवामा जेटलो प्रयास करवामां आवे छे तेटलो प्रयास जो सरल चित्तथी एज इन्द्रियोने दमवा माटे करवामां आवे तो ते बहु गुणकारी थइ शके अने एथी प्रशमसुख सहेजे मळी शके. जे सुख रागी माणसने सकळ विषयसामग्रीनो संयोग थवे छते मारे प्रयासथी प्राप्त थाय छे तेथी अनन्त कोटीगणं सुख रागद्वेषादिक विकार रहित महानुभाव साधु सहेजे-वगर प्रयासे मेळवी शके छे. इष्ट एवा शन्दादि, पुत्रादि अथवा रजत सुवर्णादिकना वियोग वखते अने अनिष्टना संयोग वखते, इष्टनो कोइ रीते वियोग न थाय अने अनिष्ट जल्दी
कूटी जबानुं बने एवी आकांचाथी उत्पन्न थतुं जे दुःख विषयसुखना अभिलाषीने वेदवु पडे छे ते दुःख रागद्वेषादिक वि। कार रहितने वेदवू पडतुं नथी. अर्थात् समभावी महाशय पूर्वोक्त दीनतामा दुःखथी तइन नीराळो रही शके छे. जेमना
वेद अने कषाय शान्त थइ गया छे एटले स्त्री, पुरुष के ए उभय संबंधी विषय भोगववानी अभिलाषाज शमी गइ छ। वळी जे हास्य, रति, परति अने शोक संबंधी विकारथी रहित स्वस्थ बन्या छे; एटले हास्यनुं कारण मन्ये छते पण जेने हास्य आवतुं नथी, प्रिय अने अप्रियमा जे समभावे रहे छे, अनित्यतादिक भावनाना बळथी शोक जेनोपराभव करी शकतो नथी तेमज भय अने दुर्गच्छा जेनाथी सदा दूर रहे थे ते प्रशान्त चित्तवाळा महानुभावने जे सहज प्रात्मसुख प्राप्त | थाय छे ते वीजा विषयरागी जीवोने क्यांधीज थाय ? १२३-२६.
वळी विषयसुख करतां प्रशमसुख घणुंज चडीयातुं छे एम दर्शावता छतां शास्त्रकार कहे छ:
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