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चणविपरिणामधर्मा मानामृद्धिसमुदयाः सर्वे । सर्वे च शोकजनकाः संयोगा विप्रयोगान्ताः॥१२१ ॥ भोगसुखैः किमनित्यैर्भयबहुलैः कांक्षितैः परायत्तः । नित्यमभयमात्मस्थं प्रशमसुखं तत्र यतितव्यम् ॥१२२॥
अर्थ-मनुष्योनी सर्व ऋद्धियो क्षणमा बदलाइ जाय एवी छे, पने सर्वे संयोगो अंते वियोगवाळा होवाथी शोकजनक छ तो अनित्य, भयथी भरेला, अभिलषेला भने पराधीन एवां विषयसुखथी सयु. नित्य, निर्भय अने स्वाधीन एवा शान्त सुखने माटे ज प्रयत्न करवो. १२१-१२२.
विवेचन-विशब्द कुत्सा वाची छे. मरण धर्म ( स्वभाव ) वाळा जे मयंजनो तेमना धन धान्य रजत सुवर्णादिक सघळा ऋद्धि-समुदायो द्रष्टनष्ट परिणामवाळा छ. एम अनेक परोक्ष अने प्रत्यक्ष दृष्टांतोधी स्पष्ट समजी शकाय छे. वळी स्त्रीपुत्रादिक सघळा संयोगिक संबंधो एक वखते मोहांधताथी गमे तेवा हर्षदायक देखाता होय तो पण ते वधा अंते वियोगशीलज होवाथी ज्यारे विखूटा पडे छे त्यारे निश्चे शोकदायक थइ पडे छे, ते भूल जोइतुं नथी. दृश्य दुनीमामा एवो कोइ संयोग-संबंध छेज नहि के जेनो वियोग स्वभाववाळा संबंधोमा अंतर्भाव थवा न पामे, तेथी पूर्वापर लामहानिनो विचार करी शकनारा सुझ जनो एवा तुच्छ विषयसुखनी अभिलाषा करताज नथी.
शब्दादिक जे पांच विषयो भोगवाय छे ते भोग संबंधी सघळा सुख पूर्वोक्त न्याय प्रमाणे अनित्य-क्षणिक के. चोर, संबंधीओ, अग्नि अने राजादिक तरफना अनेक तरेहना भयथी भरेखा के जेने माटे झंखना करवी पडे छे अने तेम छतां
गया.
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