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________________ नवपदवृत्ति:मू.देव. वृ. यशो ॥५०॥ K सम्यक्त्वो त्पादेचिला तिपुत्रज्ञातं । ताव इमोऽविह तीसे सीसं खग्गेण गहिऊणं ॥७३॥ मा होउ मज्झ एसा मा वा एयाण चिंतयंतो य । वच्चइ तहेव पुरओ तेऽवि हु पेच्छंति तं देहं ।।७४|| सोयापूरियहियया पियपुत्ता सीसविराहियं देहं । गहिऊण पडिनियत्ता तिसाबुभुक्खाहि परितंता ।।७५।। तरुछायाएँ निविट्ठा, भणिया पिउणा य वच्छ! तुझेऽत्थ । गाढं छुहाभिभूया सक्कह न पयंपि गंतूणं ।।७६।। ता एण्हि-एक्कं जराएँ गहियं अन्नं धूयाए मरणदुक्खत्तं । मं मारिऊण भक्खह तो सुहिया जाह नियगेहं ।।७७॥ पुत्तेहिं भणियं हा हा अजुत्तमयं ताय ! तए अम्ह साहियं वयणं। एवं काउं अम्हे कस्स मुहं दंसइस्सामो? ।।७८।। एमेव जेट्टपुत्तेण भासियं तंपि वारियं तेहिं । एवं कमेण सव्वेहिं भासिए तो पिया भणइ ।।७९।। जइ एवं तो पच्छा एयं चिय मयकलेवरं खाह । भइणी' विगयरागा मुणिव्व वणपिडिमिच्छंता ।।८०॥ तो भक्खिऊण तं ते पत्ता गेहं चिलाइपुत्तोऽवि । तह वच्चंतो पासइ झाणगयं मुणिवरं एक्कं ।।८।। तं भणइ अहो समणा !, संखेवेण कहेसु मे धम्मं । अन्नह तुज्झवि सीसं छिन्दिस्सामी अहमिमंव ॥८२।। पडिबुज्झिहिन्ति उवओगपुव्वयं जाणिऊण मुणिणावि । उवसमविवेगसंवर पयत्तयं साहियं तस्स ।।८३।। तं सोऊणुवसंतो गंतूण विवित्तभुमिभायंमि । सो चिंतिउं पयट्टो एयाण पयाण को अस्थो ? ॥८४॥ हुँ नायमुवसमो ताव एत्थ कोहस्स जो परिच्चाओ । उइयस्स विहलकरणेण अणुइयस्सोदयनिरोहा ।।८५।। जओ-“दुग्गइगमणे सउणो सिवसग्गपहेसु किण्हसप्पोव्व । अत्तपरोभयसंतावदायगो दारुणो कोहो ॥८६॥" जावज्जीवं इण्हि होउ निवित्ती इमस्स ता मज्झ । इय चिंतिऊण मुक्कं करवालं दाहिणकराओ ।।९०॥ जोऽवि विवेओ मुणिणा, बीयट्ठाणंमि मज्झ आइट्ठो । तस्सवि भावत्थो दव्वसयणवत्थाइपरिहारो ।।८८।। जओ-"जत्तियमेत्ते जीवो संजोगे चित्तवल्लहे कुणइ । तत्तियमेत्ते सो सोयकीलए नियमणे निहइ ॥८९॥" एएऽवि परिच्चत्ता जावज्जीवाएँ ता मए इण्हि । इय चितिऊण सीसपि छडियं चत्तमोहेणं ॥९०।। इंदियनोइंदियपसरभंजणे संवरोऽवि किर होइ । सोऽवि मए पडिवन्नो विमुक्कदेहेण एताहे ।।९१।। काउस्सग्गेण ठिओ एवं परिचिंतिऊण स महप्पा । मुणिवइउवएसायत्तसत्तहियसारसंमत्तो ।।९२।। एत्थंतरंमि-सोणियगंधागयकीडियाहिं वज्जग्गधारतुंडाहिं । सो भक्खिउमारद्धो पायतलारब्भ जाव सिरं ।।९३।। तहवि न चलिओ झाणाओ किंपि जाओ य चालिणीसरिसो अड्ढाहियदियहेहिं मओ य पत्तो य सुरलोयं ।।९४।। भणियं च-"जो तिहिं पएहिं धम्मं समभिगओ संजमं समारूढो । उवसमविवेगसंवरं चिलाइपुत्तं नमसामि ॥९५॥ अहिसरिया पोएहिं सोणियगंधेण जस कीडीओ। खायंति उत्तमंगं, तं दुक्करकारगं वंदे ॥९६॥ धीरो चिलाइपुत्तो जो मुइंगलियाहि ॥५०॥ Jain Educa e rnational For Personal & Private Use Only w e brary.org
SR No.600202
Book TitleNavpad Prakaranam
Original Sutra AuthorJinendrasuri
Author
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1998
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size8 MB
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