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________________ नवपदवृत्तिःमू.देव. वृ. यशो ॥१९॥ 1608603636060886386885 गुरू, गहिओ पडिग्गहो, चिंतियं च से जणएणं-मज्झ पुत्तो असेसदिसाचक्कपयडमाहप्पो मज्झ कए कहं भिक्खं भमिही?, ता सयं चेव वच्चामि, गहिओ गुरुहत्थाओ पडिग्गहो, निग्गओ अभिक्खडा, अयाणंतो य अवदारेण पविट्ठो एक्कसेट्ठिस्स गेहं, सिट्टिणा भणियं किं अवदारेण अज्ज । पविससि ?, सिरीए इंतीए कि दारमवदारं वत्ति, (ग्रन्थानम् ५००) पडिभणिय सुपसत्थजंपओ साहुत्ति तुटेण सेट्टिणा दवाविया बत्तीसं विसिट्ठमोयगा, साहुणा य समागंतूण वसहीए आलाइया गुरूण, तेहिं भणियं-बत्तीसं पहाणसीसा पारंपरेण आवलियाठावगा तुह होहिति, केवलं पढमा लद्धित्ति साहूण देसु, किंच-“आहारदाणओ इह, जईण पावंति मोक्खसोक्खंपि । पारपरेण सत्ता उवभुंजिय नरसुरसुहाई ॥१॥" तओ दिण्णा सव्वे, पुणो अप्पणो निमित्तं गएण लद्वं घयमहुजुत्तं परमन्नं, आगंतूण भुत्तं, तद्दिवसाओ चेव जाओ विसिठ्ठलद्धिसंपण्णो सयलगच्छोवयारी, तम्मि य गच्छे अन्नेऽवि परमलद्धिसंपन्ना तिण्णि मुणिणो, तंजहा-वस्थपूसमित्तो घयपूसमित्तो दुब्बलियपूसमित्तो, तत्थ वत्थपूसमित्तस्सेसा लद्वी-दव्वओ जत्तिएहिं वत्थेहिं गच्छस्स पओयणं तत्तियाइं आणेइ, खेत्तओ महुराए, कालओ सिसिरे वासारत्ते वा, भावओ जहा काएवि दुग्गयमहिलाए छुहाए मरंतीए गुरुकिलेसेण कत्तिऊण वुणाविया एक्का पोत्ती, कल्लं सुंदरे दिवसे परिहिस्सामित्ति धरिया, एत्यंतरे जइ सो पत्थेइ तो हठतुट्ठा देइ १, घयपूसमित्तस्स उ दवओ जत्तिएण गच्छे सरइ तत्तियं घयमाणेइ, खित्तओ उज्जेणीए, कालओ जेट्ठासाढमासेसु, भावओ जहा-एगा बंभणी गुम्विणी नियभत्तारं जाइरोरंमज्झ पसवणकाले घएण कज्ज होही तं भिक्खिऊण मेलिहित्ति भणियाइया, तेणावि कहकहवि पलियं पलियमुग्गाहंतेण पइदिणं छह मासेहिं पूरिओ घयकुडओ, समप्पिओ भट्टिणीए, जाइओ घयपूसमित्तेण, सव्वं देइ हट्टतुठा २ दुब्बलियपूसमित्तो उण निच्चमेव सज्झायवावडो, तेण नव पुव्वा अहिया अहिज्जिया, सुत्तत्थगोयराए निरंतरं चिंताए जाओ दुब्बलो, जइ नाणुप्पेहेइ तो सव्वंपि सुयं पम्हुसइ अओ चेव दुब्बलियपूसमित्तोत्ति पत्तो पसिद्धि, अण्णया तत्थेव दसपुरनयरे वत्थव्वा रत्तपडभत्ता । से बंधुणो, आयरियं वयासि-मोत्तूण भिक्खुणो न अन्नपासंडीणं झाणपरित्राणमस्थि, आयरिएणं भणिअं अजुत्तं मा वयह, जओ झाणनिरोहाओ चेव एस भे बंधू एवं दुब्बलो जाओ, तेहि भणियं-एस सिणिद्धमहुराई गिहत्थत्ते आहारितो तेण बलिओ हुँतो, अंतपंताहाराइणा य इण्हि दुब्बलो जाओ, न उण झाणेण, गुरुणा भणिय-इण्डिंपि य इमस्स घयपूसमित्ताओ मणोऽणुकूलो सिणिद्धमहुराइगुणजुओ आहारो संप्पज्जइ चेव, जइ न पत्तियह तो तुझे चेव सिणिद्धमहुराहारेणवयरिऊण बलियं करिऊणाणेहत्ति विसज्जिओ तेहिं सद्धि, ताणिवि पवराहारेणुवयरिउमाढत्ताणि, सोऽवि खणमवि Jain Educakoemabonal For Personal & Private Use Only wwAXMIbrary.org
SR No.600202
Book TitleNavpad Prakaranam
Original Sutra AuthorJinendrasuri
Author
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1998
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size8 MB
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