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॥ श्रीसद्गुरुन्यो नमः॥ ॥अथ द्वितीयः खंडः प्रारभ्यते ॥
॥दोहा॥ सिचक्र आराधतां, पूगे वांबित कोड ॥ सि-चक्र मुज मन वस्यु, विनय कदे कर जोड ॥२॥ शारद सार दया करी, दीजे वचन विलास ॥ उत्तर कथा श्रीपालनी, कदेवा मन उल्लास ॥२॥ एक दिन रमवा नीकट्यो, चहुटे कुंवर श्रीपाल ॥ सबल सैन्यशुं परवस्यो, यौवन रूप रसाल ॥३॥ मुख सोदे पूरण शशी, अर्ध चं सम नाल ॥ लोचन
अमिय कचोलडां, अधर अरुण परवाल ॥४॥ अर्थ-श्रीसिद्धचक्रनु थाराधन क
मादे श्रीविनयविजयजी बे हाथ जोमीने कहे जे के तेज सिझचक मारा मनमां वस्या॥१॥ हवे श्रीपाल राजानी ( उत्तर के) आगल कथा कहेवाने मारं मन उल्लसित थयुं , माटे हे ( शारद के० ) शारदा माता ! तमे मारी उपर (सार के० ) प्रधान श्रेयस्कारी दया करीने वचनरचनानुं विलासपणुं 81 आपो ॥२॥ एक दिवसे ( सबल के ) मोटा सैन्ये करी परवस्यो थको, यौवन अवस्थावंत तथा रसाल रूप ने जेनुं एवो श्रीपाल कुमर रमवाने माटे चौटामांथी (नीकट्यो के )जाय डे ॥३॥ संपूर्ण पूर्णिमाना चंडमा सरखं तो जेनुं मुख शोने ने अने अष्टमीना अर्ड चंडमा समान जेनुं (जाल के० ) कपाल शोने , वली लोचन जे नेत्र ते अमृतनां कचोलां सरखां शोने ३ तथा । अधर जे होठ ते परवाला सरखा ( अरुण के०) लाल वर्णे करी सहित थका शोने दे ॥४॥
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