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________________ सिरिचंदरायचरिए ॥१०॥ को वि आहारभूओ अत्थि, अओं सव्वहा इमो रक्खणीयो एव । भगवइ ! तुं बुद्धीए वएण य जेहासि, अहं तु उभएण बालम्हि, तुव पुरओ वोत्तुं पि न मम समुइयं, तह वि 'किवं विहेऊण एवं माणवरूवं विहेसु' एवं गुणावलीए बहु पत्थिया वि वीरमई अईव कुद्धा वयासी-'मुद्दे ! संपयं अहिगयरं मा बुवसु, अण्णहा भूरिपकोवणेण तुव वि असुहं भविस्सइ, अओ तुं नियपइजाई अणुसरिउं जइ इच्छसि तया वयाहि, एवं वीरमईए कूर-कक्कसक्खराई सोच्चा दीणवयणा सा थिआ । वीरमई य सत्तरं तओ समुद्राय नियट्ठाणं गच्छित्था । तओ गुणावली वियारेइअहो! खणमेत्तेणं किं जायं, दइव्वगई गरिहा, जेण जगजणगीयजसो वि अयं मे पिओ पक्खित्तणं उवागओ, दइव्वगई अन्नहा काउं को समत्यो । वुत्तं च-- जं नयणेहिं न दीसइ, हियएण वि जं न चिंतियं कहवि । तं तं सिरम्मि निवडइ, नरस्स दिवे पराहुत्ते ॥८॥ किं कुणेइ नरो तत्थ, सूरो वा अह पंडिओ । विही जस्स फलं देइ, असुहं रूसिओ जया ॥९॥ न हि भवइ ज न भव्वं, भवइ य भावी विणावि जत्तण । करयलगयमवि नस्सइ, जस्स हि भवियवया नत्थि॥१०॥ इअ विहिविलासं सम्मं वियारित्ता सा अप्पणो उच्छंगम्मि कुक्कुडं निहेऊण करेण तं मुहूं मुहूं फरिसंती नेत्तंबुधाराहि तं च ण्डवंती वयासी-सामि ! जम्मि मत्ययम्मि मणिपहाभासुरो मउडो सोहित्था तम्मि अहुणा लोहियचम्मचूला अस्थि । जो देहो अणग्यालंकारवत्येहिं रेहित्था सो संपयं पिछगुच्छेहि ढंकिओ दीसइ । जमि कडीपएसम्मि पूरा खग्गरयण धरित्या तत्थाणम्मि अज्ज वंकत्तणमावण्णा सत्थरूवा नहावली विलोइज्जड़ । पुव्वं जो ॥१०॥ १ कृपाम् । २ तत्स्थाने । Jan Education inte For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600181
Book TitleSiri Chandrai Chariyam
Original Sutra AuthorKastursuri, Chandrodayvijay
Author
PublisherNemi Vigyan Kastursuri Gyanmandir
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size6 MB
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