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धर्मरत्नप्रकरणम्
भवभीरुत्वगुण ६
२४
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सो मह भाया जिट्ठो, विमलो विमलासओ सपरिवारो। चिट्ठइ चउहडे तस्स देसु एयं इहाणेउं ॥४५॥ तो गच्छइ तत्थ निवो, सह सहदेवेण करिवरारूढो । तं दटुं संतुट्ठो, अवगूहिवि पभणए एवं ॥४६॥ भो विमल ! पुत्तभिक्खा, दिण्णा सुण्णासयस्स मज्झ तए । ता काऊण पसायं, लहु मह गिहमेहि देहि मुहं ।। ४७ ।। जह जह जंपइ तं पइ, राया वयणाइ पणयपउणाई । गुरुअहिगरणपवित्ती, तह तह सल्लइ विमलहियए ।। ४८॥ पडिभणियं तेण नरिंद ! अन्नयविसपसरहरणसुनरिंद! | सहदेवविलसियमिणं, ता किञ्जउ उचियमेयस्स ।। ४९ ॥ आरोविओ गयवरे, सबंधवो नियगिहे इमो नीओ। भणिओ य रजविसए, रण्णा पडिभणइ इय विमलो ॥५०॥ इकं ता खरकम्म, बीयं अइरित्तया परिगहस्स । ता निव! मह न हु कजं, रजेणमवजमूलेण ॥५१॥ अह सजिगीसं नाउं, सहदेवं तस्स निवइणा दिणं । हयगयरहभडजणवयपुरपमुह विभइउं सव्वं ।। ५२॥ अप्पित्ता धवलहरं, सरं व कमलाउलं उदयकलियं । विमलो पुण सिद्धिपए, संठविओऽणिच्छमाणो वि ॥ ५३॥ नियजणयपमुहलोओ, समाणिओ तत्थ तेहिं अह विमलो । कुव्वतो जिगधम्म, सम्ममइक्कमइ बहुकालं ॥ ५४॥ सहदेवो उण रज्जे, रढे विसएसु अइसयसयण्हो । अकरं करेइ वइ, पुव्वकरे दंडए लोयं ॥ ५५ ॥ वियरइ पावुवएसे, अहिगरणे कुणइ हणइ अरिदेसे । असुहज्झाणोवगओ, कया वि विमलेण तो भणिओ ॥ ५६ ।। करिकलहकण्णचवलाइ रायकमलाइ कारणा भाय ! । को पावेमु पवत्तइ, नियनियमधुरं विराहित्ता ? ।। ५७ ॥ वरमणलम्मि पवेसो, फणिमुहकुहरे वरं करो खित्तो । वरमसमामयपीडा, न हु विरइविराहणा भाय ! ॥ ५८ ॥
तत्र विमल दृष्टान्तः २४
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