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________________ धर्मरत्नप्रकरणम् १७ लोकप्रिय त्व गुणः४ सा जामिणी तिजामा, वि जामसहस्सि व्व मह जाया ॥ १७॥" तेण वि तहेव विहिए, निवेण पउराण पेसियं भुजं । देवीए गंधपुडे, पहियं विणयंधरेणेयं ॥ १८ ॥ भो ! भो ! लिवीपरिच्छं, विहिऊण विणिच्छयं कहह ममं । न हु पच्छा कहियव्वं, अहह अजुत्तं कयं रण्णा ॥१९॥ ते वि हु न हुंति दुद्धे, पूयरया तह वि सासणं पहुणो । कायव्वं ति भणंता, कुणंति हत्थे लिविपरिच्छं ॥२०॥ पिच्छिवि लिविसंवायं, भणियं नायरजणेण सविसायं । जइ वि लिवीसंवाओ, न य घडइ इमं तु एयाओ ॥२१॥ जो चरइ मणभिरामे, सल्लइतरुनियरबहलआरामे । सो कंटइयसरीरे, करी करीरे कहं रमइ ? ॥ २२ ॥ जो दुल्ललिओ सलिले, सया वि माणससरस्स अइविमले । सो कह करेइ किडं, कलहंसो गामनडुम्मि ? ॥ २३ ॥ जो अच्छइ तप्पासे, खणमवि पडिपुण्णपुण्णपसरस्स । वंजुलसंगेण विसं, व पन्नगो मुयइ सो पावं ।। २४ ।। ता मज्झत्थो होउं, देवो चिंतेउ वत्थुपरमत्थं । अघडतयं पि घडियं, एयं केणावि पिसुणेणं ॥ २५ ॥ सुद्धो वि फालिहमणी, उवाहिवसओ धरेइ अण्णत्वं । खलसंगाउ इमस्स वि, खलियं अक्खलियसीलस्स ॥ २६ ॥ इय भणिरे पउरजणे, पडियारं मयगल ब्व अगणंतो । भजियमेरालाणो, पगओ असमंजसं निवई ॥ २७ ॥ भणइ य रे रे सुहडा, हढेण आणेह तस्स दइयाओ । मुद्देह हट्टगेहे, निद्धाडिय परियणं दूरे ॥ २८ ॥ तुम्भे पुण नायरया!, हहो ! दोसिल्लपक्खवाइल्ला! । तं कारह मह पुरओ, सुद्धं जेणासु मुंचामि ॥ २९ ॥ तत्र विनयन्धर कथा १७ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.600153
Book TitleDharmratna Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay
PublisherSarabhai Manilal Nawab Ahmedabad
Publication Year
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size16 MB
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