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धर्मरत्नप्रकरणम्
अक्षुद्रत्वगुणः १
निच्चेणुरत्ता एसा, पइ कमला कमलिणि व्व दिणनाहे । तुह दाहिणकरमेलणवसा सुहं लहउ मह दुहिया ॥ २५ ॥ इय महुरगुहिरभणिईइ पत्थिओ वासवेण नरवइणा । विक्कमकुमरो कमलं, परिणेइ तिविकमु व्व तओ ॥२६॥ गोसे तोसेण पुरे, पवेसिओ निवइणा समजो सो । तीइ समं कीलंतो, चिटइ निवदिनपासाए ॥ २७ ॥ तो किं भग्गे ? कमलाइ जंपिए भणिय रायसेवाए । समओ त्ति गओ खुजो, बीयदिणे कहइ पुण एवं ॥ २८ ॥ कइया वि सुणिय रयणीइ कलुणसदं रुयंतरमणीए । तस्सद्दणुसारेण य, स गओ कुमरो मसाणम्मि ॥ २९ ।। दिट्टा बाहजलाविलविलोललोयणजुया तहिं जुबई । तीए पुरओ जोई, तह कुंडं जलिरजलणजुयं ॥३०॥ होउं लयंतरे पउरपउरिसो जाव चिहए कुमरो । विसमसरपसरविहुरो, तो जोई भणइ तं बालं ॥ ३१॥ पसियच्छि ! पसिय सयवत्तपत्तनयणे! ममं करिय दइयं । चूलामणि व्व तं होसु सयलरमणीयरमणीणं ।। ३२ ॥ सा रुयमाणी पभणइ, किं अप्पमणत्थयं कयत्थेसि । जइ सि हरी मयणो वा, तहा वि तुमए न मे कजं ॥३३॥ अह रुट्ठो सो जोई, बला वि जा गिहिही करेण तयं । ता पुकरियं तीए, हहा ! अणाहा इमा पुहवी ॥ ३४ ॥ जं सिरिपुरपहुजयसेणनिवइदुहिया अहं कमलसेणा । दिन्ना पिउणा मणिरहनिवसुयविक्कमकुमारस्स ।। ३५ ॥ संपइ विजावलिओ, अहह ! अखत्तं करेह को वि इमो । इय निसुणिय पंउणियकोवविन्भमो विक्कमो भणइ ॥३६॥
पुरिसो हवेसु सत्थं, करेसु सुमरेसु देवयं इटुं । परमहिलमहिलसन्तो, रे रे पाविट्ठ ! नट्ठो सि ॥३७॥ १°तिवणु' क । २ पयडिय° प्रत्यन्तरे ॥
तत्र सोमभीम कथा
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