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श्रीधर्मरत्नप्रकरणम्
दीर्घदर्शित्वाख्यो
गुणः
पण पण सालिकणे अप्पिऊण पभणेइ रक्खियव्य ति । जइया मग्गेमि तया, एए मे अप्पियव्वा य ॥११॥ एवं ति ताहि भणिए, विसज्जिया गउरवेण नियसयणा । पत्ता य सयं ठाणं, किमित्थ तत्त? ति सवियका ॥१२॥ मग्गिहिइ जया ताओ, जओ तओ गिहिउं समप्पिस्सं । इय चिंतिय पढमाए, वहूइ ते उज्झिया झत्ति ॥१३॥ बीयाए तुसभावं, अवणेउं भक्खिया लहुंचेव । तइयाए तायसमप्पिय त्ति अइगउरवपराए ॥१४॥ उज्जलवसणेणं बंधिऊण पक्विविय भूसणकरंडे । पइदिणतिकालपडियरणजोगओ रक्खिया ते उ॥१५॥ अह धन्नाए नियपिउगेहाओ सद्दिऊण सयणजणो । भणिओ जह पइवरिसं, वुड्डिमिमे जंति तह कुणह ॥१६॥ तेणवि वरिसारत्ते पत्ते ते वाविया पयत्तेण । खुड्डम्मि कियारे जलभरियम्मि परोहमणुपत्ता ॥१७॥ तो सब्वे उक्खणिउं, पुणरवि आरोविया कमेण तओ। जाओ पढमे वरिसे, पसत्थओ पत्थओ तेसिं ॥१८॥ बीयम्मि वच्छरे आढओ उ तइयम्मि खारिया जाया । तुरिए कुभो पंचमवरिसे पुण कुंभसहसाणि ॥१९॥ अह सिद्विणा वि भोयणपुरस्सरं सयणमाइपच्चक्खं । सद्दाविय वहुयाओ, सालिकणा मग्गिया ते उ ॥२०॥ किच्छेण सुमरिय सिरी, जओ तओ अप्पए कणे पंच । अइसवहसाविया भणइ, उज्झिया ते मए ताय !॥२१॥ एवं लच्छी वि कहेइ, केवलं भक्खिया मए ते उ । आभरणकरंडाओ, ते गहिय धणा समप्पेइ ॥२२॥ अइधन्ना अह धन्नावि मग्गिया सविणयं भगइ ताय !। ते एवमेव अइभूरिभावमिहि समणुपत्ता ॥२३॥ एवं भवंति एए सुरक्खिया ताय ! वाविया संता । सन्निक्खाया पुग वुड्भिावरहियत्तओ नेव ॥२४॥
तत्र धनश्रेष्ठिज्ञातम्। ॥६८॥
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