________________
श्रीधर्मरत्न प्रकरणम्
सुपक्षयुक्ताख्यो गुण: १४
॥६६॥
पितरौपुरिसपरंपरपत्तं, वित्तमिणमणिदियं तुमं वच्छ ! । दाउं भुत्तु पकाम, पच्छा पडिवज्ज पव्वजं ॥६॥
कुमार:जलजलणपमुहसाहारणम्मि जलनिहितरंगतुल्लम्मि । मइमं वित्तम्मि न कोइ, इत्थ पडिबन्धमुव्वहइ ॥६५॥
पितरौजह तिक्खखग्गधाराइ, वियरणं दुकरं तहा पुत्त ! । वयपालणं विसेसा, तुह सरिसाणं अइसुहीणं ॥६६॥
कुमार:कीवाण कायराणं, विसयत्तिसियाण दुक्करं एयं । उज्जमधणाण धणियं, सव्वं समं तु पडिहाइ ॥६७॥ तमिच्छयमह मुणिउं, राया सिंचेइ एगदेवसिए । तं रज्जे तह पभणइ, संपइ तुह वच्छ ! किं देमो? ॥६८॥ भणइ कुमारो दिज्जउ, रयहरणं पडिगह च तो राया । लक्खदुगेणं दुनिवि, आणावइ कुत्तियावणओ ॥६९॥ लक्खेणं कासवअं, सद्दाविय भणइ कुमरकेसग्गे । निक्खमणप्पाउग्गे, कप्पसु सो वि हु करेइ तहा ॥७॥ देवी पडेण गहिउं, एहविउं तह अच्चिउं च सियवसणे । बन्धिय रयणसमुग्गे, काउं ते ठवइ उस्सीसे ॥७१॥ राया पुणोवि कुमरं, कंचणकलसाइएहि हविऊण | लूहइ सयमंगाई, गोसीसेणं विलिंपेइ ॥७२॥ परिहावइ वत्थजुयं, कुमरमलंकुणइ कप्परुक्खु ब्व । कारइ निवो विसिटुं, सीयं थंभसयसुनिविट्ठ ॥७३॥
For Private & Personal use only
तत्र भद्रनन्दिकुमार
कथा। ॥६६॥
in Education Intematon
www.jainelibrary.org