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श्रीधर्मरत्नप्रकरणम्
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सत्कथाख्यः गुणः १३
॥६१॥
इय निम्मलगिहिधम्मा, अचलियसम्मा ददं वलियमोहा। अवितहजिणमयपयडणपंडिया सा गमइ दिवसे ॥७॥ अह चित्तवित्तिअडवीइ भुवणअक्कमणअइसयपयंडो। मोहो नाम नरिंदो, पालइ निक्कंटयं रजं ॥८॥ कइयावि निययदोसुग्घट्टणपवणं तु रोहिणिं सुणिउं । चरवयणाओ मोहो, विचिंतए धणियमुव्विग्गो ॥९॥ अइसढहिययसदागमवासियचित्ताइ पिच्छह इमीए । कित्तियमित्तं अम्हाण दोसगहणे रसप्पसरो ॥१०॥ जइ कहवि इमा एमेव चिट्ठिही कित्तियं धुवं कालं | ताणे निस्संताणं, न कोवि पिच्छिहिइ धूलिं पि ॥ ११ ॥ इय चिंतंतस्स इमस्स आगओ रायकेसरी तणओ । पणमंतो वि न नाओ, तो एसो भणइ अइदुहिओ ॥ १२ ॥ इत्तियमित्ता चिंता, किं कज्जइ ताय! तायपायाणं । जं तिजएवि न अणं, समं च विसमं च पिच्छामि ॥ १३ ॥ तो से कहेइ मोहो, जहट्ठियं रोहणीइ वुत्तंतं । तं सोउ सिरे वज्जाहओ व्व जाओ इमो विमणो ॥ १४ ॥ अह सयलंपि हु सिणं, सुविसष्णं मुक्ककुसुमतंबोलं । जायमथक्के थक्कवियनट्टगीयाइवावारं ॥ १५ ॥ इत्थंतरम्मि सिसुणा, एगेणं इत्थियाइ एक्काए । अट्टहाससई, हसियं सुणियं च मोहेण ॥ १६ ॥ तत्तो चिंतइ गुरुमन्नुपसरपरिमुक्कदीहनीसासो । के मइ दुहिए एवं, अइसुहिया नणु पकीलंति ? ॥१७॥ अह कुवियस्साकूयं, नाऊणं निययसामिसालस्स । दुट्ठाभिसंधिमंती, गयभंती विनवइ एवं ॥१८॥ देव ! निवजुबइजणवयभत्तकहाकरणचउमुहा एसा। भुवणजणमोहणी जोइणि व्व विगह त्ति मह भज्जा ॥१९॥ एस सिसू अइइट्ठो, पमायनामा ममेव वरपुत्तो । जं पुण हसियमथक्के, तं पुच्छेमो इमे चेव ॥ २० ॥
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तत्र रोहिणी ज्ञातम् ।
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