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________________ धर्मरत्नप्रकरणम् ५४ गुणरागगुणः१२ अह सो निवसुयविणयावज्जियहियओ इमं पसाहेइ । गरुयं पि रहस्सं तुह, कहियव्वं किं पुण इमं ति ॥ ३४॥ इह नाइसुदूरे सिद्धकूडसेलम्मि सिद्धबहुविज्जो । भूयाणंदो नामेण कुमर ! निवसामि हं सिद्धो ॥ ३५॥ मह अत्थि सारभूया, इक्का विज्जा अहाउयं थोवं । नाऊण अप्पणो हं, चिंतिउमेवं समारो ॥३६॥ पत्तस्स अभावाओ, विज्जं एयं करेमि कहमिहिं । नय विज्जाए दाणं, उचियमपत्ते जओ भणियं ॥ ३७॥ मरिज्ज सह विज्जाए, काले पत्ते वरं विऊ । अपत्तं नेव वाइज्जा, पत्तं तु न विमाणए ।। ३८ ।। इय चिंतिरस्स मज्झं, निवेइओ तीइ चिव विजाए । गुणरागचंगगुणगणकलिओ तं चिय सुजोग त्ति ॥ ३९॥ तो तं दाउमिह तुह, समागओ गिण्ह भो महाभाग! । जेग भवामो सुहिया, ओहरियभाव्य भारवहा ।। ४० ॥ एसा य महाविज्जा, विहिणा संसाहिया पइदिणं पि । ऊसीसयम्मि ठावइ, कणयसहस्सं निवंगरुह ! ॥४१॥ पायमिमीइ पभाषा, संगामपराजयाइ नहु होइ । इंदियविसयाईयंपि, नज्जए वत्थुजायं च ॥ ४२ ॥ उल्लसिरविणयभरनमिरमउलिकमलेण निवइतणएण । संजोडियकरजुयलेण, तयणु इय वयणमुल्लवियं ॥ ४३ ॥ गंभीरा उवसंता, निम्मलगुणरयणरोहणसमाणा । बुद्धिसमिद्धिसमेया, गुणिजणअणुरायपरिकलिया ॥४४॥ परिभमिरभुवगकित्ती, परोवयारिकमाणसा धणियं । पहु ! तुम्हारिस य च्चिय, जुग्गा एवं रहस्साणं ॥ ४५ ॥ बालाण सुतुच्छमईण सुद्धविण्णाणनाणरहियाण । के अम्ह गुणा का अम्ह, जुग्गया इय सुविजाणं ॥ ४६ ॥ किंतु गुरुएहि बिहिया, पुरओ लहुणो वि डंति कज्जकरा । रविणा अग्गे विहिओ, अरुणो वि हणेइ तिमिरभरं ॥४७॥ तत्र पुरन्दर राजर्षिकथा Jain Education internationa For Private Personel Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600153
Book TitleDharmratna Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay
PublisherSarabhai Manilal Nawab Ahmedabad
Publication Year
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size16 MB
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