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रायपसेण:/ इय सुचनो सार
॥२१॥
| भरावदार मजबूत खभा, सुबद्ध सांधावाळी सुग्लिष्ट स्थिर पुष्ट पोंचामां सुसंस्थित नगरना दरवाजा पाछळ रहेला भोगळ जेवी गोळ अने धोंसरा जेवी लांबी भुजाओ,
शेषनागे विस्तारेली फणा जेवा विपुल अने उंचा करेला भोगळ जेवा दृढ बाहुओ, राती कोमळ मांसल अने शुभ चिह्नोवाळी हथेळी, पांचे आंगळीओ सिधी करतां जेमां जेमा पक पण काणुं न देखाय तेवो निश्छिद्र प्रशस्त पंजो, लोहीथी भरेली कोमळ पांच पांच आंगळीओ, तांबा जेवा राता स्निग्ध चमकता नखो,
हथेळीमां चन्द्र, शंख, चक्र, स्वस्तिक अने सूर्यनी जेवी रेखाओ, पहोळी विशाळ सोनानी पाट जेवी उज्ज्वल समतल-पक सरखी अने श्रीवत्सना" चिह्नथी शोभती छाती, हाडकां न देखाय तेवो मांसल बरडो, कनकनी कान्ति जेवी कान्तिवाद्धं रोगरहित | निर्मळ सुजात शरीर,
संगत संनत सुंदर अने सुजात पडखाओ, काखनी नीचेना बन्ने बाजुना भागो बराबर प्रमाणसर अने पुष्ट, माछी ऋजु स्निग्ध अने रमणीय रुंवाटी-रोमराई, माछली अने पक्षीनी कुक्षि जेवी सुजात पुष्ट कुक्षि, माउलीना उदर जेवू चमकतुं उदर, इंद्रियो बधी निर्मळ, | १०
४४ श्रीवत्सनो अर्थ आपता आचार्य हेमचंद्र कहे छे के "श्रिया युक्तो वत्सो वक्षोऽनेन श्रीवत्सः रोमावर्तविशेषः” कांड २, लोक १३६ अभिधानचिंतामणि. रुंवाटानो एक खास प्रकारनो वळांको ते श्रीवत्स. जेनी छातीमां ए विशिष्ट प्रकारनो संवाटानो वळांको होय ते सुलक्षणो कहेवाय एवो लोकवाद छे. श्रीवत्सवाळी छाती होवाने लीधे कृष्णर्नु एक नाम श्रीवत्स पण छे. 'वत्स'नो अर्थ 'वक्ष-छाती' थाय छे. जेने लीधे छाती शोभावाळी थाय ते श्रीवत्स, जे जे जिनबिंबो वर्तमानमा देखाय छे ते बधांनी छातीना बराबर मध्य भागमा लंबचोरस जे, एक उपसेलं निशान देखाय छे अने एने 'श्रीवत्स' कहेवामां आवे छे. ए निशान कोइ उपसेला हाडकानी स्मृति करावे छे, त्यारे 'श्रीवत्स' तो १५ रुवाटानो खास प्रकारनो वळाको छे ए ध्यान देवा जेवी बात छे..
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