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________________ श्राद्धप्र- तिसूत्रम् ॥१५८॥ विषधरादिविषं निजमनप्रयोगेण दंशे एवानीयते, एवं धार्मिकेणाप्येतद्वतप्रयोगेण बहुसावद्यव्यापारः सटि-२८गाथाप्यते, तत्सङ्केपे च कर्मणामपि सङ्केपस्ततश्च क्रमेण निःश्रेयसावाप्तिरित्यष्टाविंशगाथार्थः ॥ २८॥ अत्रायं यां देशावनृपकोशाध्यक्षधनदसम्बन्धः-- काशिके चक्कपुरंमि पुरंमि चक्किपुरंमिव समिद्धिपउरंमि । हरिकेऊ केऊ इव रिऊण सुविऊ निवो आसी॥१॥ लोअठि- धनदज्ञातं इलोअवयणिजजाणणट्ठा स नट्टचरिआए। चरइ पुरे धुत्तो इव ठिई हि एसा नरेसाणं ॥२॥ रत्तिं कयाइ गुत्तं निहालए बहुमिलंतजणघडं । चउहदमि पयह सो नदृ दिवनदं व ॥३॥ धणसारसिद्वितणओ धणनामेणं गुणकलानिलओ। कलभोव उन्नयकरो लीलायंतो तहिं पत्तो॥४॥ सामन्नो कोवि इमो इअभिच्चस्स व निवस्स सो खंधे । हत्थेण देहभारं दाउंपिक्वइ पिक्वणयं ॥५॥ पिक्खणयंते पिक्खणकराण धणएण दाउ घणमुचिअं। तंबोलजुओ रन्नो दिन्नो सोवन्नदीणारो ॥६॥ खणमित्तभारभाडयनिमित्तमवि किंपिऽहो कयनुत्तं । |निअगोवणाय गहिओ स निवेणवि मग्गणव लहुं॥७॥ युग्मम् ॥ धणयस्स नएण निवो तुट्ठो लीलाइ तह पहायंमि । तं आहवे हसिउं साहइ सन्जेसु मह खंधं ॥ ८॥ धणि धणओवि तओ चमक्किओ संकिओ | असमयन्नू । भासइ भूभारखमे तुह खंधे को णु मह भारो ? ॥९॥ तो तं विसेसतुट्ठो निवइविसिट्ठो ठवेइ पुत्त: ॥१५८॥ पए । उचिअवयणं हि चिंतारयणं व न किं च विअरेइ ? ॥१०॥ अन्नया समागया तत्थ रयणवणिआ उवणीअं च तेहिं रन्नो रयणत्तयं तिलोअणलोअणत्तयं व अइदिपंतयं, रन्नावि आइहारयणपरिक्खादक्खा तप्परिक्वट्ठा, Jain Educa t ional For Private Personel Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600129
Book TitleShraddh Pratikraman Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1919
Total Pages474
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size23 MB
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