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श्राद्धप्रतिसूत्रम्
॥१५२॥
चोरिया उ लया। तकालमेव जायइ जीइ महिड्डी दरिद्दोवि ॥३०॥ ता किं करिस्समिहि अहवा जं होइ होउगाथाशतं सत्वं । चोरिं मुंचामि कहं जीए विलसामि सच्छंदं ? ॥३१॥ अंजणमदिस्सकरणं जइ वा विजं कहंपि पावे- यांसामामि । ताऽहं होमि कयत्थो पूरेमि मणोरहे निअए ॥ ३२॥ इअ चिंतंतो अंतो नयरं सुइरं परिभमंतो सोयिके धनएगत्थ जोगसिद्धं कलासमिद्धं निहालेई ॥ ३३ ॥ तं तह बहुधणदाणेणावजइ सो जहा लहुं देइ । तं अंजणं मित्रज्ञातं मणंपिव निअयं किं वा न दाणाओ?॥३४॥ जओ-"दानेन भूतानि वशीभवन्ति, दानेन वैराण्यपि यान्ति
गा. नाशम् । परोऽपि बन्धुत्वमुपैति दानात् , ततः पृथिव्यां प्रवरं हि दानम् ॥ ३५॥" सीहो व पक्खरजुओ पक्ख-11
१७-४३ जुओ विसहरो छ सो दुसहो। चित्तापत्तोच रवी जाओ तेणंजणेण जणे ॥३६॥ तत्तो सो सच्छंदं गिण्हइ| दविणाणि सत्वभवणाणि । परिमुसिउं २ चोरो अवरोव रोहिणिओ ॥ ३७ ॥ परइथिओवि भुंजइ गिहतरे वंतरुव पविसित्ता । एवं सो अदिस्सो लोअंविनडेइ सबमवि ॥ ३८॥ तेणासन्नगिरिस्स य गूढगुहन्भंतरे परधणेहिं । विहिओ निअभंडारो पच्चक्खो पावभंगारो॥३९॥ जीवुच अप्पडिहओ सुहुमो वाउच संचरंतो सो गाढपयत्तपरेहिवि निउणेहिवि न मुणिओ कहवि ॥४०॥ नरवइणो वयणाओ तह पिउणो चोरिआ मए चत्ता। इअ भणिरो इब्भो इव निवसहाए सया एइ ॥४१॥ जो तकरस्स गरिहं करेइ तं पयडिउं पइन्नं वा । सो
॥१५२॥ मुसह तस्स गिहं रुटुं दिवं व सर्वपि ॥ ४२ ॥ अणुमाणेणं तेणं तं जाणंतावि पुत्रचिट्ठाए । रायाई नहु भणि सका हत्थे अचडणाओ॥ ४३ ॥ अइगूढं मुहमंपिह अत्थं सत्थस्स पयडयंति विऊ । पयडं पोडंपि इमं न को
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