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श्रीगुणचंद है दीसइ ?, इओ एहि भह !, किं तुमंपि अहमिव एयाए छलणगोयरसुवगओत्ति जेण वाणारसीविमुक्कोवि एत्थ पेच्छि-TEL, विद्या महावीरच० जसि ?, गोभद्देण चिंतियं-अहो गाढो अमरिसो, ता तहा करेमि जहा अवरोप्परं पणयभावो हवइ एसि, अणु
सिद्धादीनां ५प्रस्तावः
परस्पर चिया हिओवेहा विसिढ़पुरिसाणंति, इइ संचिंतिऊण आबद्धकरंजली सो भणिउमाढत्तो
मेलक ॥१६९॥ हे भइणि चंदलेहे! हे विजासिद्ध ! गुणगणसमिद्ध । जइविहु कुसलत्तणओ तुम्हाण न किंपि वत्तवं ॥१॥
तहविहु असरिसपेमप्पबंधसंबंधतरलियमणोऽहं । दियभावभूरिजंपिरसभावओ किंपि साहेमि ॥२॥ जो तुम्ह परोप्परमेस रोसलेसो कहंपि संभूओ। सो मोत्तयो होइत्ति परमवेरिव दुहदायी ॥३॥ जेणानलुब पढमं नियठाणं दहइ एस वहुंतो । ता अवगासोऽवि कहं दायबो होइ एयस्स ? ॥ ४॥ अह वेरिसु दोसकरणत्तणेण कोवो समुल्लसइ तुम्ह । कोवेच्चिय किं को न कुणह दुक्खेकहेउंमि? ॥ ५॥ न चलइ गरुयाण मणो अवराहपए अईव गरुएवि । जह जलहरेण खुब्भुइ गिरिसरिया तह न नइनाहो ॥६॥ तथा-अवयारे अवयारो जं कीरइ एस नीयववहारो। उवयारकारगचिय गरुया अवयारिणि जणेऽवि ॥७॥
॥१६९॥ इहरा विसेसलंभो उत्तमनीयाण कह णु जाएजा!। न हि एगरूववत्थुमि होइ विविहाभिहाणाई ॥८॥ अलमेत्तो भणिएणं तुम्हं जइ मम गिरंमि पडिबंधो । जइ उत्तमगुणमग्गेण विहरि विजए विच्छा ॥९॥ जइ ससहरजोण्हासत्थहं च कित्तिं सया समभिलसह । पुवाणुसयं मोतुं परोप्परं कुणह ता पणयं ॥१०॥ जुम्म।
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