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________________ Jain Education इभावना भावीइ ||१|| साते खेत्रे धन वावीइ, विदल माहि नवि लीजइ दहीं । अठाणुनूंं नामज नही, निसि भोजन नवि कीजिइ माइ ॥ (मांस सुरा मधु मांखण, घरि कोइ न खाइ ॥२॥ एतच्छ्रुत्वा वसुमती हृष्टाऽवग्-भो पादातिक ! यदि मां विक्रेष्यसि तदाऽस्मै देहि त्वं, ततस्तेन पादातिगेन धनावहाय श्रेष्ठिने दत्ता धनेन । ततो यावद् धनावहः श्रेष्ठी तां गृहीत्वा गृहे गतः । सुकर्मवशतः सुस्थाने चन्दनाऽगात् । यतः " - विहि विहडावर विहि घडइ, विहि घडिउं भंजइ । इम्हइ लोअ जु तडफडइ, जं विहि करइ स होइ ॥ १ ॥” तदा तां दृष्ट्वा तस्याः प्रिया मूला चकिता । धनावहेन चन्दनबालेति नाम प्रोक्तम् । श्रेष्ठिनोक्तं - अस्याः पुत्र्याः पालने यत्नः कार्यस्त्वया । तदा मूला दध्यौ - एष मम पतिरपरां स्त्रियं परिणेतुं एतामानीतवान् । अधुना जल्पति इयं पुत्री - पापीइ पति अखत्र नवि गणइ, मनि मइलओ मुखि बेटी भणइ । सीअलउं बोली देसीइ दाघ, डोकरिनइ घरि पयठउ वाघ ॥ १ ॥ दूध नीम लीघउं मंजारि, उंदरिसरसी मंत्री हारि । एह बात जइ साची होइ, ए बेटी नवि मानइ कोइ ॥ २ ॥ | हुं पडती ए चडती वेस, मुज माथइ हूआ करडा केस । वडपणतणी विणासणहारि, संतापती सउकि घरबारि ॥ ३ ॥ हउं आगई जीभइ आपणी, पीहरि सविहं अलखामणी । कोइ न पावे पाणी पली, बेइ भव गिया For Private & Personal Use Only jainelibrary.org
SR No.600112
Book TitleBharateshwar Bahubali Vrutti Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhshil Gani
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1937
Total Pages398
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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