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प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि०
॥१२३॥
SARKARRORANG
चोलपट्टानाच्छादितं दृष्ट्वा स्त्रिया एव लिङ्गोदयो भवति ततस्तत्प्रच्छादनाय पट्टः-चोलपट्टोऽनुज्ञात इति ॥ ५१९ ॥ इदनीमिहेव द्वारे ६१ प्रत्ये. उपकरणादिव्यवस्थार्थ साधुभेदानाह
18 कबुद्धादि: अवरेवि सयंबुद्धा हवंति पत्तेयबुद्धमुणिणोऽवि । पढमा दुविहा एगे तित्थयरा तदियरा अवरे भेदाः गा. ॥५२० ॥ तित्थयरवजियाणं बोही उवही सुयं च लिंगं च । नेयाइँ तेसि बोही जाइस्सरणाइणा ५२०-२८ होइ ॥ ५२१ ॥ मुहपत्ती रयहरणं कप्पतिगं सत्त पायनिजोगो । इय बारसहा उवही होइ सयंबुद्धसाहूणं ॥५२२॥ हवइ इमेसि मुणीणं पुव्वाहीयं सुअं अहव नत्थि । जइ होइ देवया से लिंगं अप्पइ अहव गुरुणो ॥ ५२३ ।। जइ एगागीविहु विहरणक्खमो तारिसी व से इच्छा । तो कुणइ तमन्नहा गच्छवासमणुसरइ निअमेणं ॥५२४ ॥ पत्तेयबुद्धसाहूण होइ वसहाइदंसणे बोही। पोत्तियरयहरणेहिं तेसि जहण्णो दुहा उवहीं ॥ ५२५ ॥ मुहपोत्ती रयहरणं तह सत्त य पत्तयाइनिजोगो । उक्कोसोऽवि नवविहो सुयं पुणो पुव्वभवपढियं ॥ ५२६ ॥ एकारस अंगाइं जहन्नओ होइ तं तहुक्कोसं । देसेण असंपुन्नाई हृति पुव्वाइं दस तस्स ॥ ५२७ ॥ लिंगं तु देवया देइ होइ कइयावि लिंगरहिओवि । एगागी च्चिय विहरइ नागच्छइ गच्छवासे सो॥५२८॥
॥१२३॥ 'अवरेऽवी'त्यादिगाथानवकं, 'अपरेऽपि' जिनकल्पिकस्थविरकल्पिकेभ्यः पूर्वभणितेभ्योऽन्येऽपि मुनयो भवन्ति स्वयम्बुद्धाः प्रत्येक|बुद्धाश्च, अपि: चार्थे, तत्र प्रथमाः-स्वयम्बुद्धा द्विविधाः-एके तीर्थकरास्तदितरे-तीर्थकरव्यतिरिक्ताः 'अपरे' द्वितीयाः, इह च तीर्थकरव्य-|
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