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सव्वजीवाणं ॥४॥ जं अण्णोण्णाणुगयं जण समं तं विजुज्जइ न तम्हा । जह जीवाओ पएसे तथा कम्मपि तो विंझ!॥५॥ पुट्ठो जहा अबहो कंचइणं कंचओ समण्णेइ । एवं पुटुमबद्ध जीवं कम्मं समन्नेहा ! विझो पभणइ ताहे गुरुणा मह एवमेवमक्खायं । पडिभणिओ तो तेणं गुरूवि तुह किं वियाणेइ ? ॥ ७ ॥ तास संकइ सो नियमणमि मा अन्नहा मए गहियं । होज इमं ता गंतुं निययगुरुं चेव पुच्छामि ॥ ८॥ विणओणएण पहा गुरुणो तेहिवि तहत्ति से कहियं । भणियं च कीस अवगयभावस्सवि तुझिमा संका ? ॥९॥ तो माहिलवत्तंतो कहिओ सूरीण तेहि तो भणियं । माहिलवुत्तं मिच्छा जहा तहा विंझ ! निसुणेसु ॥ १०॥ अण्णोऽण्णाणगयाणिवि उवायओ जेण खीरनीराणि । जायंति पढो तम्हा हेउअणेगंतया ताव ॥ ११॥ जा उ पइण्णा साऽविह पच्चक्खविरोहिणी जओ जीवो । मरणसमयंमि दीसइ आऊकम्मेण मुच्चंतो ॥ १२ ॥ दिलुतोऽवि न साहणधम्माणुगओ जो न कम्मव्य । जीवाउ सप्पएसो भिन्नो आगंतुओ होइ ॥ १३ ॥ जं च पलत्तं जीवो, पुट्ठो कम्मेण कंचुएणव्य । ताप न जुत्तं जम्हा वेइज्जइ वेयणा मज्झे ॥१४॥ सा य न पावइ तम्हि अभावओ तन्निमित्तकम्मरस । सिद्धस्स व तो पयडो समागओ अणुभवविरोहो ॥ १५ ॥ इय एवमाइ दोसे सुणिउं विंझो य माहिलं भणइ । अवियारिय
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