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श्रीनव०बृह हरीवि वियरेइ से अभयं ।। ८६ ॥ एवं कयकिच्चो पंडवाण समाप्पिऊण नियभाणं । जंबद्दीवाभिमुहं तहेव चलिओ दोष नागश्रीवृत्तौ
कथा. आतथिसं
छहिं रहेहि ॥ ८७ ॥ इओ य-धायइसंडपुरस्थिम भरहढे चंपनयरिवत्थव्यो। तत्थासि वासुदेवो कविलो नामेण विमागे विक्खाओ ॥ ८८ ॥ मुणिसुव्वओ य अरहा समोसढो तइय तस्स नयरीए । पवरम्मि पुन्नभहीम चेइए जइजण- 1
समेओ॥ ८९ ॥ सो कविलवामदेवो सणमाणो तस्स अंतिए धम्मं । सुणिउं कण्हावूरियसंखधणि पुच्छइ जिणिंद ॥ ९० ॥ भयवं ! क एस संखं आवरइ ? तो जिणो भणइ भद्द !। जंबुद्दीवगभरहद्धसामिओ वासुदेवोऽयं ॥ ९१॥ पत्तो इहई दोवइकडंमि सिरिपउमनाहरायाणं । जिणिउं गहिउं च तयं चलिओ सट्ठाणमेत्ताहे ॥ ९२॥ हरिसेण| पंचजन्नं वायतो लवणजलहिमणुपत्तो । भणइ जिणं तो कविलो जइ एवं जामि तं द8 ॥ ९३॥ कयपूयं च विसजिय भूओऽवि समागमिस्समिह अहयं । तो बेइ जिणो उत्तिम पुरिसाण न होइ मेलावो ॥ ९४ ॥ जओ-तित्थयर चक्कवट्टी बलदेवो तह य वासुदेवा य । एए सुमहापुरिसा न परोप्पर दंसणमिमेसि ॥ ९५॥ एवं भणिओऽवि
|॥२९ ॥ गओ वेगेण रहेण जाव उयहितडं । कविलो जा कण्होऽविह पत्तो लवणोयहीमज्झं ॥ १६ ॥ अव्वत्ते धयचिंधे Mदट्ठ कविलेण पूरिओ संखो । कण्हेणऽवि कयमेवं निसुओ य परोप्परं सहो ॥ ९७ ॥ पच्छाहुत्तो चलिओ पत्तो कवि
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