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श्रीपञ्चव.
२ प्रतिदि नक्रिया
॥२६१ ॥
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जिणदिहमेवमेअं निरभिस्संगं विवेगजुत्तस्स । भावप्पहाणमणहं जायह केवल उत्ति ।। ५३२ ॥ आह जह जीवधाए पच्चक्खाए न कारए अन्नं । भंग भयाऽसणदाणे धुवकारवणत्ति नणु दोसो ॥ ५३३ ॥ नो कयपञ्चकखाणो आयरियाईण दिज्ज असणाई । ण य विरइपालणाओ वेआवचं पहाणरं ॥ ५३४ ॥ नो तिविहंतिविहेणं पञ्चक्खर अण्णदाणकारवणं । सुद्धस्स तओ मुणिणो ण होइ त भंगउत्ति ॥ ५३५ ॥ सयमेवपाणिअं दाणुवएसा य नेह पडिसिद्धा । तो दिज्ज उवइसिज्ज व जहासमाही अ अन्नेसिं ॥ ५३६ ॥ aavaraणोऽविअ आयरिअगिलाणबालवुड्डाणं । दिजाऽसणाइ संते लाभे कयवीरिआयारो ॥ ५३७ ॥ संविग्गअण्णसंभोइआण दंसिज्ज सड्डगकुलाणि । अतरंतो वा संभोइआण जह वा समाहीए ॥ ५३८ ॥ भाविअजिणवयणाणं ममत्तरहिआण नत्थि उ विसेसो । अप्पाणमि परम्मि अ तो बज्जे पीडमुभओऽवि ॥ ५३९ ॥ पुरिसं तस्सुवयारं अवयारं चप्पणो अ नाऊणं । कुज्जा बेआवडिअं आणं काउं निरासंसो ॥ ५४० ॥ भरवि पुचभवे बेआवञ्चं कथं सुविहिआणं । सो तस्स फलविवागेण आसि भरहाहिवो राया ॥। ५४१ ।। भुंजितु भरवाएं सामन्नमणुत्तरं अणुचरित्ता । अट्ठविहकम्ममुक्को भरहनरिंदो गओ सिद्धिं ॥ ५४२ ।। पासंगिअभोगेणं वेआवचमिअ मोक्खफलमेव । आणाआराहणओ अणुकंपादिव विसयंमि ॥ ५४३ ॥ सुहतरुछायाइजुओ अह मग्गो होइ कस्सइ पुरस्स । एक्को अण्णो णेवं सिवपुरमग्गोऽवि इअ णेओ ॥ ५४४ ॥ अणुकंपाविओं पढमो सुहपरगामीण सो जिणाईणं । तयजन्तगो उ इअरो सदेव सामण्णसाहूणं ॥ ५४५ ॥
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प्रत्याख्यानेsवि वैयावृत्त्यं
॥२६१॥
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