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________________ Jain Education International समभावेच्चि जं तं जायइ सव्वत्थ आवकहिअं च । तो तत्थ न आगारा पन्नत्ता बीअरागेहिं ॥ ५९८ ॥ तं खलु निरभिस्संगं समयाए सबभावविसयं तु । कालावहिम्मिवि परं भंगभया णावहित्तेण ॥ ५१९ ॥ मरणजयज्झबसिअसुहडभावतुल्लमिह हीणनाएणं । अववायाण न विसओ भावेअवं पयन्तेणं ॥ ५२० ॥ एत्तोचिअ पडिसेहो दढं अजोगाण वन्निओ समए । एअस्स पाइणोऽविअ बीअंति विद्दि एसऽइसइणा ॥ ५२१ ॥ inster अम्मी ओहेण विसिद्व्यत्थमेअस्स । आगम भणिईअ तहा कहं न एएण कति ? ॥ ५२२ ॥ तस्स उपवेसनिग्गमवारणजोगेसु जह उ अववाया। मूलाबाहाइ तहा नवकाराईमि आगारा ।। ५२३ ॥ णय तस्स तेस्रुवि तहा णिरभिस्संगो ण होइ परिणामो । पडिआरलिंगसिद्धो उ निअमओ अन्नहारूवो ॥ ५२४ ॥ णय पढमभाववाघायमो उ एवंपि अविअ तस्सिद्धी । एवं चिअ होइ दढं इहरा वामोहपायं तु ॥ ५२५ ॥ न य सामाइअमेअं वाहइ भेअगहणेऽवि सङ्घत्थ । समभाव पवित्तिनिवित्तिभावओ ठाणगमणं च ।। ५२६ ।। उभयाभावेऽवि कुओऽवि अग्गओ हंदि एरिसो चेव । तक्काले सद्भावो चित्तखओवसमओ ओ ।। ५२७ ।। अण्णे भणति जइणो तिविहाहारस्स तं खलु न जुत्तं । सङ्घविरईड एवं भेअग्गहणे करूं सा उ १ ।। ५२८ ॥ णु अप्पमायसेवणफलमेअं दंसिअं इहं पुत्रिं । तम्भोगमित्तकरणे सेसचाया तओ अहिओ ।। ५२९ ।। एवं कचि कज्जे दुहिस्सवि तं न होइ चिन्तमिअं । सचं जइणो नवरं पाएण न अन्नपरिभोगो ॥ ५३० ॥ उवओगो एवं (अं) खलु एआ विगई नवित्ति जो जोगो । उच्चरणाई उ विही उपि अ कज्जभोगगओ ॥ ५३१ ॥ For Private & Personal Use Only ***** www.jainelibrary.org
SR No.600102
Book TitlePanchvastuka Granth
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size13 MB
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