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________________ कालता श्रीपञ्चव. अब्भुज्जयमेगयरं पडिवजिउकामाँ सोवि पवावे। गणिगुणसलद्धिओखलु एमेव अलद्धिजुत्तोऽवि १५५७/स्थविरान्य५ संलेख- एव पहाणो एसो एगंतेणेव आगमा सिद्धो । जुत्तीएऽवि अ नेओ सपरुवगारो महं जम्हा ॥१५५८॥ कल्पानां नावस्तुनि यथाअभ्युद्यत पण य एत्तो उवगारो अण्णो णिवाणसाहणं परमं जंचरणं साहिज्जइ कस्सइ सुहभावजोएण॥१५५९॥ विहारे अचंतिअसुहहेऊ एअं अण्णेसि णिअमओ चेव । परिणमइ अप्पणोऽवि हु कीरंतं हंदि एमेव ॥१५६०॥ ॥२२१॥ गुरुसंजमजोगो विहु विण्णेओ सपरसंजमो जत्थ । सम्मं पवड्डमाणो थेरविहारे असो होइ ॥१५६१॥ अच्चतमप्पमाओऽवि भावओ एस होइणायवो। सुहभावेण सया सम्म अण्णेसि तकरणं ॥१५६२॥ ___ जइ एवं कीस मुणी थेरविहारं विहाय गीआवि ?।। पडिवजंति इमं नणु कालोचिअमणसणसमाणं ॥ १५६३ ॥ ततकाले उचिअस्सा आणा आराहणा पहाणेसा । इहरा उ आयहाणी निप्फलसत्तिक्खया णेआ॥ अहवाऽऽणाभंगाओ एसो अहिगगुणसाहणसहस्स । हीणकरणेण आणा सत्तीऍ सयावि जइअवं ॥1॥२२१॥ एत्तो अ इमं एवं जं दसपुवीण सुबई सुत्ते । एअस्स पडिस्सेहो तयण्णहा अहिगगुणभावा ॥१५६६॥ Jain Education m ana For Private & Personel Use Only Wigainelibrary.org
SR No.600102
Book TitlePanchvastuka Granth
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size13 MB
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