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________________ Jain Education | एगिंदिआइ अह ते इअरे थोवत्ति ता किमेएणं ? । धम्मत्थं सवच्चिअ वयणा एसा ण दुट्टत्ति ॥ १२३२ ॥ | एअंपि न जुत्तिखमं ण वयणमित्ताउ होइ एवमिअं । संसारमोअगाणऽवि धम्मादोसप्प संगाओ ॥१२३३ ॥ सिअ तं न सम्म वयणं इअरं सम्मवयणंति किं माणं ? | अह लोगो चिअ ने तहा अपाढा विगाणा य ॥ १२३४ ॥ | अह पाढोऽभिमउच्चिअ विगाणमवि एत्थ थोवगाणं तु । इत्थंपि णप्पमाणं सवेसि विदंसणाओ उ॥ १२३५॥ किं तेसि दंसणेणं अप्पबहुत्तं जहित्थ तह चेव । सवत्थ समवसेअं णेवं वभिचारभावाओ ॥ १२३६ ॥ अग्गाहारे वहुगा दीसंति दिआ तहा ण सुद्दत्ति । ण य तदंसणओ चिअ सव्वत्थ इमं हवइ एवं ॥१२३७॥ | ण य बहुगाणवि एत्थं अविगाणं सोहणंति निअमोऽयं । ण य णो थेवाणं हु मूढेअरभावजोएण ॥ १२३८ ॥ णय रागाइविरहिओ कोऽवि पमाया विसेसकारिति । जं सवेऽवि पुरिसा रागाइजुआ उ परपक्वे ॥ १२३९ ॥ एवं च वयणमित्ता धम्मादोसा ति मिच्छगाणंपि । धाएँताण दिअवरं पुरओ णणु चंडिकाईणं ॥१२४० ॥ For Private & Personal Use Only ww.jainelibrary.org
SR No.600102
Book TitlePanchvastuka Granth
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size13 MB
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