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'सप्तैकस्थानस्य तु' एकस्थानं नाम प्रत्याख्यानं, तत्र सप्ताकारा भवन्ति, इहेदं सूत्रम् -' एगट्ठाण' मित्यादि, एगट्ठाणए जं जहा अंगोवंगं ठविअं तेण तहाठिएण चैव समुद्दिसियबं, आगारा से सत्त, आउंटणपसारणा नत्थि, सेसं जहा एक्कासए । अट्ठेवायामाम्लस्याकाराः, अणाभोगा० १ सहसा० २ लेवालेवेणं ३ उक्खित्तविवेगेणं ४ गिहत्थ संसट्टेणं ५ पारिठावणियागारेणं ६ मयहरागारेणं ७ सबसमाहिवत्तियागारेणं ८ वोसिरति, अणाभोगस हसकारा तहेव, लेवालेवो वा, जइ भाणे पुवं लेवाडगं गहिअं समुद्दिनं संलिहियं च जइ तेण आणेति ण भज्जइ, उक्खित्तविवेगो जइ आयंबिले पडइ विगतिमादि उक्खिवित्ता विकिचड, मा णवरि गलड, अण्णं वा आयंबिलस्स अपाउग्गं जइ उद्धरिडं तीरइ उद्धरिए ण उवहम्मइ, गिट्ठसंसद्वेऽवि जइ गिहत्थो डोवलियं भायणं वा लेवालेवाडं कुसणाईहिं तेण ईसित्ति लेवाडादीहि देति ण भज्जइ, जइ रसो आलक्खिज्जइ बहुओ ताहे ण कप्पर, पारिट्ठावणियमयहरगसमाहीओ तहेव । पश्चाभक्तार्थस्य तु न भक्तार्थोऽभक्तार्थः उपवास इत्यर्थः, तस्य पञ्चाकारा भवन्ति, इदेहं सूत्रम् - ' सूरे उग्गए' इत्यादि, तस्स पंच आगारा - अणाभोग सहसाकार पारिट्ठावण मयहर समाहित्ति, जइ तिविहस्स पच्चक्खाइ तो विकिंचणिया कप्पर, जइ चउविहस्स पच्चक्खाइ पाणगं च नत्थि न वट्टइ, जइ पुण पाणगंपि उबरियं ताहे से कप्पइ, जइ तिविहस्स पच्चक्खाइ ताहे से पाणगस्स छ आगारा कीरंति - लेवाडेण वा अलेवाडेण वा अच्छेण वा बहलेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसिरइ" प्रकटार्था एते छप्पि । एतेन षड् पान इत्येतदपि व्याख्यातमेव । 'चरमे चत्वार' इत्यत्र चरिमं दुविहं - दिवसचरिमं भवचरिमं च, दिवसचरिमस्स चत्तारि - अण्णत्थअणाभोगा सहस मयहर सबसमाहि, भवचरिमं- जावज्जीवियं, तस्सवि एए चत्तारित्ति गाथार्थः ॥ ९ ॥
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प्रत्याख्याने
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