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दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २७४ ॥
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जया य चयई धम्मं, अणज्जो भोगकारणा । से तत्थ मुच्छिए बाले, आयइं नावबुज्झइ ॥ १ ॥ जया ओहाविओ होइ, इंदो वा पडिओ छमं । सव्वधम्मपरिब्भट्टो, स पच्छा परितप्पइ ॥ २ ॥ जया अ वंदिमो होइ, पच्छा होइ अवंदिमो | देवया व चुआ ठाणा, स पच्छा परितप्पइ ॥ ३ ॥ जया अ पूइमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो । राया व रज्जप-भट्टो, स पच्छा परितप्पड़ ॥ ४ ॥ जया अ माणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो । सिट्ठि व्व कब्बडे छूढो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ५ ॥ जया अ थेरओ होइ, समइकंतजुव्वणो । मच्छु व्व गलं गिलित्ता, स पच्छा परितप्पइ ॥ ६ ॥ जया अ कुकुडुंबस्स, कुतत्तीहिं विहम्मइ । हत्थी व बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ७ ॥ पुत्तदारपरीकिण्णो, मोहसंताणसंतओ | पंकोसन्नो जहा नागो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ८ ॥
यदा चैवमप्यष्टादशसु व्यावर्त्तनकारणेषु सत्स्वपि 'जहाति' त्यजति 'धर्म' चारित्रलक्षणम् 'अनार्य' इत्य
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१ रतिवाक्यचूला •
॥ २७४ ॥
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