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________________ दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २६४ ॥ Jain Education Inte अष्कायादीन् यः पिबति, तत्त्वतो विनाऽऽलम्बनेन, कथं न्वसौ भिक्षुः नैव भावभिक्षुरिति गाथार्थः ॥ उक्त उपनयः, साम्प्रतं निगमनमाह तम्हा जे अज्झयणे भिक्खुगुणा तेहि होइ सो भिक्खू । तेहि अ सउत्तरगुणेहि होइ सो भाविअतरो उ ॥ ३५८ ॥ यस्मादेतदेवं यदनन्तरमुक्तं तस्माद् येऽध्ययने प्रस्तुत एव 'भिक्षुगुणा' मूलगुणरूपा उक्तास्तैः करणभूतैः सद्भिर्भवत्यसौ भिक्षुः, तैश्च 'सोत्तरगुणैः' पिण्डविशुद्ध्यात्तरगुणसमन्वितैर्भवत्यसौ 'भाविततरः' चारित्रधर्मे तु प्रसन्नतर इति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तचेदम् निक्खम्ममाणाइ अ बुद्धवयणे, निचं चित्तसमाहिओ हविज्जा । इत्थीण वसं न आवि गच्छे, वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू ॥ १ ॥ पुढविं न खणे न खणावए, सीओ - दगं न पिए न पिआवए । अगणिसत्थं जहा सुनिसिअं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥ २ ॥ अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिंदे न छिंदा - वए । बीआणि सया विवज्जयंतो, सच्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू ॥ ३ ॥ वहणं त For Private & Personal Use Only १० सभि क्ष्वध्य० ॥ २६४ ॥ Tainelibrary.org
SR No.600091
Book TitleDashvaika Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1918
Total Pages574
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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