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________________ दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १६१ ॥ Jain Education Internation नामंठवणापिंडो दुव्वे भावे अ होइ नायव्वो । गुडओयणाइ दव्वे भावे कोहाइया चउरो ॥ २३५ ॥ पिडि संघाए जम्हा ते उइया संघया य संसारे । संघाययंति जीवं कम्मेणट्टप्पगारेण ॥ २३६ ॥ दुव्वेसणा उ तिविहा सचित्ताचित्तमीसव्वाणं । दुपयचउप्पयअपया नरगयकरिसावणदुमाणं ।। २३७ ।। भावेसणा उ दुविद्दा पत्थ अपसत्थगा य नायव्वा । नाणाईण पसत्था अपसत्था कोहमाईणं ॥ २३८ ॥ भावस्सुवगारित्ता एत्थं दव्वेसणाइ अहिगारो । तीइ पुण अत्थजुत्ती वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती ॥ २३९ ॥ पिण्डेसणाय सव्वा संखेवेणोयरह नवसु कोडीसु । न हणइ न पयइ न किणइ कारावणअणुमईहि नव ॥ २४० ॥ सा नवहा दुह कीरइ उग्गमकोडी विसोहिकोडी अ । छसु पढमा ओयरइ कीयतियम्मी विसोही उ ॥ २४१ ॥ कोडीकरणं दुविहं उग्गमकोडी विसोहिकोडी अ । उग्गमकोडी छकं विसोहिकोडी अणेगविहा ॥ ६२ ॥ भाष्यम् ॥ कम्मुद्देसिअचरिमतिग पूइयं मीसचरिमपाहुडिआ । अज्झोयर अविसोही विसोहिकोडी भवे सेसा ॥ २४२ ॥ नव चेवद्वारसगा सत्तावीसा तहेव चउपन्ना । नउई दो चैव सया सत्तरिआ हुंति कोडीणं ॥ २४३ ॥ रोगाई मिच्छाई रागाई समणधम्म नाणाई । नव नव सत्तावीसा नव नउईए य गुणगारा ॥ २४४ ॥ व्याख्या-पिण्डश्चैषणा च 'द्विपदं नाम तु' द्विपदमेव विशेषाभिधानं 'तस्य' उक्तसंबन्धस्याध्ययनस्य ज्ञा १ प्रतिभातीयं प्रक्षिप्तप्राया, पदघटना त्वेवम्- रागद्वेषौ नवभिर्मिथ्यात्वाज्ञानाविरतयो नवभिः रागद्वेषौ सप्तविंशत्या श्रमणधर्मदशकं नवभिः ज्ञानदर्शनचारित्राणि नवत्या च ( एवं ) गुणकाराः. For Private & Personal Use Only ५ पिण्डैषणाध्य० ॥ १६१ ॥ Painelibrary.org
SR No.600091
Book TitleDashvaika Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1918
Total Pages574
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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