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दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ १५८ ॥
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विंद भोए, जे दिव्वे जे अ माणुसे ॥ १६ ॥ जया निव्विंदए भोगे, जे दिव्वे जे अ माणुसे । तया चयइ संजोगं, सब्भितरबाहिरं ॥ १७ ॥ जया चयइ संजोगं, सब्भितरबाहिरं । तया मुंडे भवित्ता णं, पव्वइए अणगारिअं ॥ १८ ॥ जया मुंडे भवित्ता णं, पव्वइए अणगारिअं । तया संवरमुकिटं, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥ १९ ॥ जया संवरमुकि, धम्मं फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसंकडं ॥ २० ॥ जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसंकडं । तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छ ॥ २१ ॥ जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ । तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ॥ २२ ॥ जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली । तया जोगे निरंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ ॥ २३ ॥ जया जोगे निरंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ । तया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥ २४ ॥ जया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥ २५ ॥
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४ षड्जीवनिकाध्य० जीवस्वरूपं
॥ १५८ ॥
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