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________________ सक्लेशजनकत्वेन शस्त्रग्रहणादीनामनन्तभवहेतुत्वात् , अनेन चोन्मार्गप्रतिपल्या मार्गविप्रतिपत्तिराक्षिप्ता, तथा चार्थतो मोही भावनोक्ता, यतस्तल्लक्षणं "उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ मग्गविप्पडिवत्ती। मोहेण य मोहित्ता संमोहं भावणं कुणइ ॥१॥" | ननु पूर्व तद्विधदेवगामित्वं भावनाफलमुक्तं, इह तु अन्यदेवास्या इति कथं न विरोधः १, उच्यते,-अनन्तरफलमाश्रित्य तदुक्तं, इदमेव तु परम्पराफलं सर्वभावनानां इति ज्ञापनार्थ इत्थमुपन्यासः, तथा चोक्तं-"एआओ भावणाओ भाविता देवदुग्गई जंति रिति । तत्तो अचुआ संता परिति भवसागरमणंतं ॥१॥"२६६ ॥ १६३९ ॥ ___ सम्प्रत्युपसंहारद्वारेण शास्त्रमाहात्म्यमाह इति पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए (बुडे पा०)॥१६४०॥त्तिबेमि ॥ (प्र० जोगविहीइ विहिता एए जो लहइ सुत्तमत्थं वा। भासेइ य भवियजणो सो पावइ निजरा विउला ॥१॥ जस्साढत्ता एए कहवि समप्पंति विग्घरहियस्स । सो लक्खिजइ भव्वो पुव्वरिसी एव भासंति ॥२॥) ॥जीवाजीवविभत्ती ॥ ३६॥ KeXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXO कन्दर्पादिभावनाखरूपम् AAAAAAAAAAAAAA.A....AA. SA-A उत्तरज्झयणसुयक्खंधो समत्तो॥ Jain Educatio For Private & Personal use only I mjainelibrary.org
SR No.600070
Book TitleUttaradhyayanani Uttararddha
Original Sutra AuthorChirantanacharya
AuthorKanchansagarsuri
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1889
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size22 MB
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