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उत्तरा० अवचूर्णिः
लेश्याख्यं चतुर्विंशमध्ययनम्
३४
॥२९२॥
गाथा ४ स्पष्टा, नवरं त्रय उदधयः-सागरोपमाणि ॥ ३६ ॥ १३२७ ॥
मुहुत्तद्धं तु जहन्ना दोण्हुदही पलियमसंखभागमभहिआ। उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा तेउलेसाए ॥१३२८॥ द्वावुदधी द्वे सागरोपमे ॥३७॥१३२८ ॥
मुहत्तद्धं तु (द्धा उ पा०) जहन्ना दसउदही होइ मुहुत्तमन्भहिआ।
उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा पम्हलेसाए ॥ १३२९ ॥ मुहत्तद्धं तु जहन्ना तित्तीसं सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा सुक्कलेसाए ॥ १३३०॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ॥ ३८-३९ ॥ १३२९-३० ॥
प्रकृतमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाहएसा खलु लेसाणं आहेण ठिई उ वणिया होइ । चउसुवि गईसु इत्तो लेसाण ठिई उ वुच्छामि ॥१३३१॥ स्पष्टा, नवरं, ओघेन-सामान्येन गतिभेदाविवक्षयेतियावत् , तुः पूरणे, चतसृष्वपि गतिषु नरकगत्यादिषु प्रत्येकमिति शेषः, अत इति ओघस्थितिवर्णनानन्तरम् ॥ ४०॥ १३३१ ॥
प्रतिज्ञातमेवाहदसवाससहस्साई काऊइ ठिई जहनिया होइ । तिनोदही पलिय असंखेजभागं च उक्कोसा ॥१३३२॥ दसेत्यादिसूत्राणि १५, दशवर्षसहस्राणि कापोतायाः स्थितिजघन्यिका भवति, त्रय उदधयः, सूत्रत्वात् पल्योपमासङ्ख्येयभागं
*तेजोपमशुक्ल
लेश्यानां
स्थितिः
*॥२९२॥
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