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लेश्याध्य
यनं. ३४
उत्तराध्य. त्रय उदधयः सागरोपमाणि द्वावुदधी-द्वे सागरोपमे, दशोदधयो-दश सागरोपमाणि, 'तेत्तीसति त्रयस्त्रिंशत्साग- बृहद्धत्तिः निरोपमाणि, पठन्ति च सर्वत्र 'मुहुत्तद्धा उत्ति, तत्र मुहूर्त(धि)शब्देन प्राग्वदन्तर्मुहूर्त्तस्योक्तत्वादन्तर्मुहूर्त्तकालमिति
सूत्रषट्कार्थः ॥ सम्प्रति प्रकृतमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह॥६५८॥
एसा खलु लेसाणं आहेण ठिई उ वणिया होइ । चउसुविगईसु इत्तो लेसाण ठिई उ वुच्छामि॥४०॥ स्पष्टमेव, नवरम् 'ओघेन' इति सामान्येन गतिभेदाविवक्षयेतियावत् , 'चतसृष्वपि गतिषु' नरकगत्यादिषु प्रत्येकमिति शेषः, 'अतः' इत्योपस्थितिवर्णनानन्तरमिति सूत्रार्थः ॥ प्रतिज्ञातमेवाह
दसवाससहस्साई काऊ ठिई जहन्निया होइ।तिन्नोदही पलिय असंखेजभागं च उक्कोसा ॥४१॥ तिण्णुदहीपलिओवममसंखभागो जहन्ननीलठिई । दसउदहीपलिओवममसंखभागं च उक्कोसा ॥४२॥ दसउदहीपलिओवममसंखभागं जहनिया होइ । तित्तीससागराइं उक्कोसा होइ किण्हाए ॥४३॥ एसा नेरईयाणं लेसाण ठिई उ वणिया होइ । तेण परं वुच्छामि तिरियमणुस्साण देवाणं ॥४४॥ अंतोमुहत्तमद्धं लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ । तिरियाण नराणं वा वजित्ता केवलं लेसं ॥ ४५ ॥ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होइ पुवकोडी उ । नवहिं वरिसेहिं ऊणा नायव्वा सुक्कलेसाए ॥४६॥ एसा तिरियनराणं लेसाण ठिई उ वणिया होइ । तेण परं वुच्छामि लेसाण ठिई उ देवाणं ॥४७॥ दसवाससहस्साई किण्हाए ठिई जहनिया होइ ।
SAGARCAMERASACANCE
६५८॥
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