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| प्रशस्तिगत पद्यथी स्पष्ट जणाई आवे छे के,-विक्रम संवत् १६७४ ना वर्षे विजयादशमी शुक्रवारमा 'दिवसे गच्छाधिराज श्रीमान् विजयदेवसूरिजीनी आज्ञाथी अने पोताना दीक्षा-विद्यागुरु श्रीशांतिचंद्रोपाध्यायनी कृपाथी वाचकवर श्रीरलचंद्रगणिए अध्यात्मकल्पलता नामनी आ सुंदर वृत्ति रची छे. एमनो पण विशेष इतिहास जाणवा माटे उपर्युक्त 'जैन गूर्जरकविओ-प्रथम माग' तथा 'जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' वांचकोए जोवा.
सुरतवासिओने मान लेवा जेवी वात छे के, आ टीका श्रीरत्नचंद्रगणिए सुरतने आंगणे पूर्ण करी छे, अने प्रद्यम्नचरित्र वगेरे बीजा पण केटलाक अन्थो रची सुरतमा पूर्ण कर्या छे. ___ अध्यात्मकल्पद्रुम ग्रन्थ, (१) शृंगार, (२) हास्य, (३) करुण, (४) रौद्र, (५) वीर, (६) भयानक, (७) बीभत्स, II (८) अद्भुत अने (९) शांत ए नवे रसोमांना सर्व रसोना अधिराजसमा शांतरसथी सोळ अधिकारोमा विभूषित करवामां आवेलो होई एमां स्वपरने हित थवाना हेतुथी शांत्यादि भावोर्नु प्रतिपादन करवामां आवेलुं छे. एनुं वाचन, मनन, अध्ययन अने तदनुसार आचरण, आत्माना वैरीरूप क्रोध, मान, माया, लोभ, राग अने द्वेष तथा ते वडे उत्पन्न थतां आत्मानां अन्य बंधनो या अंतरायो उपर जय मेळवी जयश्री-जयकमला वरवान; तेम ज भवोनी अभिवृद्धि-रूप संसारचक्रमां वारंवार न पीलातां कुंभकारना चक्र उपर माटी पिंडमांथी नीकळतां शुद्ध-पात्रादिकनी जेम अथवा कादव-पाणी इत्यादिथी निराळा शुद्ध कमळ-दलनी जेम आत्मानी शुद्धतावडे कल्याण-कमला या मोक्षलक्ष्मीनी प्राप्तिनुं मुख्य साधन छे.
BATASARAGARRIGAISATGAL
च.क.५