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________________ निकृष्टकर्मणामुपरि उपदेशमाह - जेसिं मणे पावमई निविद्या, निव्वा वित्ती पुण सं कि लिहो । याऽवि ते हुंति न दिहतुठा, सवत्थ पार्वति डुदाइ डुद्वा ॥ ए८ ॥ व्याख्या - येषां जीवानां मनसि पापमतिर्निविष्टा प्रविष्टाऽस्ति निर्वाहस्य वृत्तिः निर्वाद्रवृत्तिः वर्त्तनं वृत्तिः उपजीविका संविष्टाऽस्ति शकर्म निर्नाटकचारवदनाद्यैर्जायमानाऽस्ति, कदाचित्ते सत्त्वाः न दर्षतोषजाजः स्युः, किं तु सर्वत्रापि प्राप्नुवन्ति दुःखान्येव पुष्टाः । इति काव्यार्थः ॥ चैतपरि दृष्टान्तः सूच्यते सूर गिरिसमधी रह जखदिगजी रह सिरिवीरहपय श्रणुसरिय । वेरग्गदकारण पुरियनिवारण जणिसु मियापुत्तह चरिय | ॥ १ ॥ मिगनामात् इह जरहि गाम जिहिं सोहइ घणवणमनिराम । तिहिं विजयनाम जूवर पसिद्ध हयगयरहगयघमसमिद्ध ॥ २ ॥ तसु घरणि रमणि 85 मिगादेवि रइरंजहरा वियरूपिदेवि । खकामकायसुसीलदेह जिपि सो इइ सोइ रायगे ॥ ३ ॥ तिहिं अन्नदिवसि सिरिवीरसामि जसु सुकयवलि पह्नवइ नामि । श्रह समवसरिय सुरनमियपाय सोवन्नवन्न करसत्तकाय ॥ ४ ॥ श्रागमण मुवि श्रह. विजयराय पत्तल पहुबंदण पण्यपाय । उवविध तु सामिजन्ति वरकाण सुएइ सो एक चित्ति ॥ ५ ॥ जच्चंध कोई इत्थंतरम्मि संपत्त समवसरणम्मि रम्मि । मनुयाख जेम मलिय अष्ठ जणहार पासि जसु त अदष्ठ ॥ ६ ॥ जइ जुन्न सकियची वरह खंक वेयण विसदंत श्रपयंक । जाऐ 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600046
Book TitleUpdeshsaptatika
Original Sutra AuthorKshemrajmuni
Author
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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