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उपदेश
॥ १४० ॥
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कलिया ॥ ४१ ॥ इय विखविरी४ तार्ड सचिवेहिं रखिया महा5दिया । डुहिय व हियावह पेसखाहिं वग्गूहिं मदुराहिं ॥ ४२ ॥ तह दाससवग्गो सबो आसासि य उवि य । न तु इत्थ सोय किं जर्ज इमे मुणियसुयसारा ॥ ४३ ॥ सबै रायकुमारा दारासुय मोहवजिया धन्ना । तित्थस्स रस्कएका सजीवियं कप्पियं जेहिं ॥ ४४ ॥ इय सपिरेहिं मंती हिं तेहि दिनं पयाण्यं ऊत्ति । ते संपत्ता सिरिसगरच विश्रासन्ननयरीए ॥ ४५ ॥ समकालमेव सुयकालधम्मवत्ता अहो श्रवतवा । वत्तवा निवपुर ( कद ) श्ररकयमागएहि सयं ॥ ४६ ॥ ता खाकरमम्हाणमेयमग्निम्मिता पविस्सामो । इय डुम्मणमिणणं एगो तेसिंदिन मिलि ॥ ४७ ॥ कमेवमात्तं विसायमावहद तेहिं तो कहिए। तेणुत्तं संसारे सुहमसुहं वाऽवि संघकइ ॥ ४८ ॥ अछेर मित्थ न डु किं वि एयमवि न कहेमि नूवइणो । परिवन्नं तेहिं तनुं अणाहममयं स खंधम्मि ॥ ४९ ॥ श्ररोविकण रोइनमाढत्तो करुण विरससदेहिं । हा मुझे मुद्दोऽहं महकघ्यरं समावमियं ॥ ५० ॥ पत्तो रायडुवारं तस्साराकिं सुषित्तु भूवइणा । सद्दाविजे स तुरियं विष्प तुमं के मुसिऽसि ॥ ५१ ॥ इइ पुढे वागरिय देव दयं कुसु देहि श्रधारं । श्रहिणा महेस तर्ज दो द्वेष इक्कोऽवि ॥ ५२ ॥ जीयावेह इमं ता श्रम्हाणं देह पुत्तनिरकं जो । इत्थावसरे पत्ता ते चेवि हु मंतिसामंता ॥ ५३ ॥ जोहारिय जुमिवई श्रसीया दीपदी पडवयथा । तो नरवइणा विको सद्दाविय एवमाइ ॥ ५४ ॥ एयं धिक्राइसुयं निबिसपसरं खतुं तुमं कुसु । विको श्य बजारई नाह इमं सुबह मवयणं ॥ ५५ ॥ न हु मरणमवगर्ल जम्मिं जो कोइ तग्धरस्स जया । श्रणिखाइ बहु ररका तो जीवावेभि नो इहरा ॥ ५६ ॥ तो जाइया विनूई घरे घरे सयसद्स्ससो तेसु । जायाई बंधुमरणाएं पाविकइ तारिसा कह सा ॥ ५७ ॥
यायिता २१
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सप्ततिका
॥ १४० १
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