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________________ उपदेश ॥ ६० ॥ Jain Education सो नया समेर्ज घेतुं कुसुमाई जियहरम्संतो । रहवणुसववेखाए सावयजण विहियमेखाए ॥ २०४ ॥ पियदंसणमवलोश्य जिणबिंबं तस्स जत्ति उलसिया । तो सुरहिपुप्फमाल मालाए महइ जिनाहं ॥ २०५ ॥ बहुत्तीए नमि गमि पावोदर्ज पुरा विहि । बहुवियोगसमिद्धी समजिया रक्तसंपत्ती ॥ २०६ ॥ संपप्प का धम्मं पुत्तत्तं रयणसेहर निवस्स । पत्तो पुन्नुदरणं जंगलं हग्गसंसग्गं ॥ २०७ ॥ जिपूयाइ जमयमपुन्नमलब हिमगिरिसरिछं । तं संप तुह नरवर इत्यवि धम्मे धिई जाया ॥ २०० ॥ पावित्ता श्रमरतं खहितु तत्तो नरिंदतायतं । संजममाराहित्ता गंता तुममरकयं वगणं ॥ ॥ २०९ ॥ यसोच्चा नियवित्तं रंजियचित्तो नरेसरो जार्ज । अन्नायपरविरत्तो धम्मश्रिरत्तं चिरं पत्तो ॥ ११० ॥ सूरिं नमित्तु नियगिमागच्च सुसच्चमग्गबधमई । सावयधम्मं सम्मं जदुत्तविहिणा पालिं ॥ १११ ॥ श्य रयणचंदचरियं जिदिपूर्ववरिं निसामित्ता । कुह जिएचएमएदं अणुहवह जहा सिवसुहाई ॥ २१२ ॥ ॥ इति श्री जिनार्चायां श्री रत्नचन्द्रदृष्टान्तः ॥ क्रमागतं प्रमादपरिहारोपदेशमाद 1 डुकं सुतिरकं नर पायसेवा गमि सहित्ता, पंचिंदियत्तं पुण जो लड़िता । कालं, सो बंधिदी नो गुरुमोहजालं ॥ १३ ॥ 120 For Private & Personal Use Only सप्ततिका. ॥ ६० ॥ jainelibrary.org
SR No.600046
Book TitleUpdeshsaptatika
Original Sutra AuthorKshemrajmuni
Author
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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