SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानदर्शन आवश्यक- | जिनो भविष्यति । प्रज्ञया बुद्ध्या दर्शनविपाकं मोक्षसाधकं समीक्ष्य दृष्ट्वा वरं दर्शनमेव ॥ ११६६ ॥ ' भटे' नियुक्ति| भट्टेण चरित्ताओ सुट्टयरं दंसणं गहेयत्वं । सिझंति चरणरहिया दंसणरहिया न सिझंति ॥११६७ | चारित्रदीपिका॥ त्रययोगे ____एवं पराभिप्रायं साशङ्कयाह । ॥ ११६७ ॥ 'दसा' संपूर्णफल॥१४॥ दसारसीहस्स य सोणियस्सा, पेढालपुत्तस्स य सञ्चइस्स। | सिद्धिः॥ अणुत्तरा दंसणसंपया तया, विणा चरित्तेणऽहरं गई गया ॥ ११६८॥ दशारसिंहस्य कृष्णस्य पेढालपुत्रस्य सत्यकिनोऽनुत्तरा प्रधाना दर्शनसम्पत्तदा आसीत् । परं चारित्रेण विनाऽधरां गतिमall sधोगतिं गतः ॥ ११६८ ॥ ' सव्वा' सबाओवि गईओ, अविरहिया नाणदंसणधरोह।ता मा कासिपमायं, नाणेण चरित्तरहिएणं॥११६९॥ ___सर्वा गतयो ज्ञानदर्शनधरैरविरहिताः सहिताः परं चारित्री नृगतावेव । ततश्चारित्ररहितेन ज्ञानेन हेतुभूतेन प्रमादं मा कार्षीः॥११६९ ॥ ' सम्म' सम्मत्तं अचरित्तस्स,हुज भयणाइ नियमसो नत्थिाजो पुण चरित्तजुतो,तस्स उ नियमेण सम्मत्तं११७० । अचारित्रस्य जीवस्य सम्यक्त्वं भजनया विकल्पेन स्यात् , न तु नियमशोऽस्ति ॥ ११७० ॥ 'जिण' ॥१४॥ Jain Education in For Private & Personal Use Only www.iainelibrary.org
SR No.600032
Book TitleAvashyakaniryuktidipika Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManekyashekharsuri
PublisherVijaydansuri Jain Granthmala Surat
Publication Year1945
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy