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________________ नाग ३ पंचसंरीरिणश्च, तिर्यग्मनुष्या नोगनूमिजाश्च समचतुरस्रमेवैकं संस्थानमुदीरयंति, न शेषं, नदया- नावात.॥३१॥ टीका ॥ मूलम् ॥-पाश्मसंघयणं चिय । सेढीमारूढगा नई रंति ॥ इयरे हुं वठ्ठ-गंतु ॥१०६जावियला अपऊत्ता ।। ३२ ॥ व्याख्या-श्रेणिं कपकश्रेणिमारूढाः संत आदिमसंहननमेव व जर्षननाराचसंहननमेवोदीरयंति, न शेषसंहननानि नदयानावात्. न हि शेषसंदनिनः कपकश्रेणिमारोहंति. तथा इतरे एकेंख्यिविकलेंडियनैरयिकलब्ध्यपर्याप्तकाश्च पंचेंश्यितिर्यमनुप्या हुंममेव संस्थानमुदीरयंति, तस्यैवोदयनावात्. तथा विकलेंख्यिाः सर्वेऽप्येकेंश्यिवर्जा लब्ध्यपर्याप्तकाश्च सेवासंहननमेवैकमुदीरयंति, न शेषं संहननमुदयाऽनावात्. ॥ ३५॥ ॥ मूलम् ||-वेनवियाहारग-नुदये न नरावि होति संघयणी ॥ पऊत्तबायरोच्चिय । प्रायवनबीरगो लोमो ॥ ३३ ।। व्याख्या-वैक्रियाहारकशरीरनाम्नोरुदये वर्तमाना नरा अ- पि मनुष्या अपि, अपिशब्दात्तिर्यंचोऽपि वैक्रियशरीरिणः संहननिनो न नवंति संहननोदीसरका न नवंति, नदयानावात्. तथा पर्याप्तबादर एव नौमः पार्थिवः पृथ्वीकायिक प्रातप ॥१६॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.600029
Book TitlePanchsangraha Tika Part_3
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorMalaygiri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1910
Total Pages366
LanguagePrakrit
ClassificationManuscript
File Size16 MB
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