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________________ पंचसं टीका ॥ ११२ ॥ स च चतुर्णांघातिकर्मणां ज्ञानावरणदर्शनावरण मोहनी यांतरायरूपाणामवसेयः, नान्येषां क्षयोपशम एव क्षायोपशमिकः क्षयोपशमनिष्पन्नस्तु घातिकर्मक्षयोपशम संपाद्यो मतिज्ञाना दिलब्धिरूप श्रात्मनः परिणामविशेषः, तथा चोक्तमा–' से किं तं खनुवसमनिष्फन्ने ? नवसमनिफन्नेोगविहे पन्नत्ते तं जहा - खनवसमिया प्रनिलिवोदियनाललड़ी, एवं सुयनाणल दी, नहिनाल दी, मरापजवनाराली, खनवसमिया मइअन्नाणल दी, खनवसमिया सुन्नाणल दी, खनुवसमिया विनंगनाएगलधी, खनुवसमिया सम्मदंसणली, खनवसामया सम्ममिदं साल दी, खनुवसमिया सामाइयलड़ी, खनुवसमिया बेनवडावाली, एवं परिहारविसुयिलाड़ी, सुहुमसंपरायलाही, खनुवसमिया चरित्ताच रित्तलही, खनवसमिया दाली, खनवसमिया लाजली, एवं जोगलड़ी, नवजोगलदी, खनवसमिया वीरियलड़ी, खन्वसमिया पंडियवीरियलड़ी, एवं बालवी रियलड़ी, बालपंमियवी रियलड़ी, खनवसमिया सोइंदियलड़ी, एवं चख्खुईदियलड़ी, घालिं दियलड़ी, जिनिंदियलड़ी, फासिंदियल दी, इत्यादि । तथा परिणमनं परिणामः कथंचिदवस्थितस्य वस्तुनः पूर्वावस्था परित्यागेनोत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only नाग १ ।। ११२ ।। www.jainelibrary.org
SR No.600027
Book TitlePanchsangraha Tika Part_1
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorMalaygiri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1910
Total Pages368
LanguagePrakrit
ClassificationManuscript
File Size16 MB
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