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________________ मूत्रे कल्पमञ्जरी टीका भूमिसवर्णकान्तिमत्तया दुर्लक्ष्याणाम् , तथा-इतोऽन्येषामपि तथाप्रकाराणाम् एकेन्द्रियाणां जीवानां विराधना भवतीति। वर्षाकालिकविहारेण यथा एकेन्द्रियजीवानां विराधनासम्भवस्तथैव द्वीन्द्रियादिजीवानामपि, अतस्तानाह- ‘एवं संखाणं संखणगाणं' इत्यादिना। एवम् अनेन प्रकारेण शख़ानां शरेवति प्रसिद्धानां, श्रीकल्प शङ्खनकानां क्षुद्रशङ्वानां,जलौकानां 'जाँक'इति भाषापसिद्धानां,नीलफ़नां लटइतिभाषा प्रसिद्धानाम् ,गण्डोल॥८॥ कानां, शिशुनागानाम् , तथा अन्येषामपि तथाप्रकाराणां द्वीन्द्रियजीवानां विराधना भवतीति। तथा-एवमेव प्राणमुक्ष्माणाम् अनुद्धरिकुन्थूनां-ये चलन्त एव छद्मस्थैदृश्यन्ते न तु स्थिताः, तेषा त्रीन्द्रियजीवविशेषाणाम् । उक्तमेतद्विषये-'सेकिं तं पाणसुहुमे ? पाणसुहुमे पंचविहे पणत्ते, तं जहा -किण्हे नीले लोहिए हालि ये सब एकेन्द्रिय जीव है । इनकी तथा इनसे अतिरिक्त भी इन्हीं सरीखे अन्य एकेन्द्रिय जीवों की विराधना होती है। वर्षाकाल में विहार करने से जैसे एकेन्द्रिय जीवों की विराधना होती है, उसी प्रकार द्वीन्द्रिय आदि जीवों की भी। अत एव-अब उन्हें कहते हैं शंख, छोटे शंख, जॉक, लट, गिंडोला, केंचुवा तथा इसी प्रकार के अन्य द्वीन्द्रिय जीवों की विराधना होती है। पाणमक्ष्म एक प्रकार के कुंथुवा होते हैं, जिन्हें छद्मस्थ जीव चलते समय ही देख पाते हैं, जब वे ठहरे होते हैं तब दिखाई नहीं देते । यह त्रीन्द्रिय जीव हैं। इनके विषय में कहा भी है‘से किं तं पाणसुहुमे' इत्यादि। “वे प्राणमुक्ष्म क्या कहलाते हैं ? माणमूक्ष्म पाँच प्रकार का कहा गया है-कृष्ण, नील, लाल, पीला और श्वेत । अनुदरी-नामक અને એવા પ્રકારના બીજા એકેન્દ્રિય જેની પણ વિરાધના થાય છે. જેવી રીતે એકેન્દ્રિય ની વિરાધના થાય છે તેમ બેન્દ્રિય આદિ જીની પણ વિરાધના થાય છે. તેના નામ આ પ્રમાણે છે–શંખ નાનામેટા, જલ, લટ, ગિડોલા, કંચુવા તેમ આવા પ્રકારના અન્ય બેન્દ્રિય જીવની પણ વિરાધના થાય છે. “પ્રાણુસૂમિ'-એક પ્રકારના કુંથવા હોય છે. જેએને છત્મસ્થ ચાલતી વખતે જ જોઈ શકે, જ્યારે તેઓ સ્થિર હોય ત્યારે જોવામાં नयी माता से त्रीन्द्रिय वा छ, सेना विषयमा थुपए छे-से कि त पाणसुहुमे" त्याle, " प्राण Jain Education inemamat सूक्ष्म वा हाय छ १ प्राए सूक्ष्म पांच प्रानi Bai -stmlalal, elm. पोजा, सहे. मनुरी नामना ॥८ ॥ Z nw.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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