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________________ श्रीकल्प हिरण्येन ववृधे । एवं सुवर्णेन धनेन धान्येन विभवेन ऐश्वर्येण ऋद्धया खलु सिद्धया खल समृद्ध्या खलु सत्कारेण सम्मानेन पुरस्कारेण राज्येन राष्ट्रेण बलेन वाहनेन कोषेण कोष्ठागारेण पुरेण अन्तःपुरेण जनपदेन यशोवादेन कीर्तिवादेन स्तुतिवादेन वधे । विपुल-धन-कनक-रत्न-मणि-मौक्तिक-शङ्ख-शिलाप्रवाल-रक्तरत्नादिकेन सत्सारस्वापतेयेन प्रीतिसत्कारसमुदयेन अतीव २ अभ्यवर्धत । ततः खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अम्बापित्रोः अयमेतद्रपः आध्यात्मिकः चिन्तितः कल्पितः प्रार्थितो मनोगतः सङ्कल्पः समुदपद्यत-यत्मभृति च खलु अस्माकमेष दारकः कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्तः, तत्मभृति च खलु वयं हिरण्येन वर्धामहे, यावत् प्रीतिसत्कार कल्प सत्रे मञ्जरी ॥५७१।। टीका EMAad भगवतो उस रात्रि में ज्ञातकुल की हिरण्य (चांदी) से वृद्धि हुई। इसी प्रकार स्वर्ण से, धन से, धान्य से, विभव से, ऐश्वर्य से, ऋद्धि से, सिद्धि से, समृद्धि से, सत्कार से, सम्मान से, पुरस्कार से, राज्य से, राष्ट्र से, बल से, वाहन से,कोष से, अन्नभंडार से, पुर से, अन्तःपुर से, जनपद से, यशोवाद से, कीर्तिवाद से और स्तुतिवाद से वृद्धि हुई। ज्ञातकुल प्रचुर धन, स्वर्ण, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, लाल आदि रत्नों से, वास्तविक प्रधान ने 'वर्द्धमान' द्रव्यों से तथा प्रीति एवं सत्कार को प्राप्ति से खूब-खूब बढ़ा। इतिनामतब श्रमण भगवान महावीर के माता-पिता को यह आध्यात्मिक-आत्मामें भीतर ही भीतर होनेवाला करणार्थ तन्माताविचार, चिन्तित-वारंवार होनेवाला विचार, कल्पित-कार्यपरिणत करने योग्य विचार, पार्थित-स्वीकृत विचार, पित्रोः मनोगत-मन में दृढ़ता से स्थित विचार तथा संकल्प निश्चित विचार उत्पन्न हुआ कि जब से यह बालक संकल्पः। हमारे यहाँ उदर में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ है, तभी से हम हिरण्य से यावत् प्रीति एवं सत्कार आदि के था sी. प्रकारे, मासभा, सोनु, धन, धान्य, लव, वय, *la, सिद्धि, समृद्धि, सत्४।२, सन्मान, पु२२४१२, राज्य, राष्ट्र, गण, सेना, पान, मना, भन्न २, न॥२, अंत:पुर, अन५४, 4. अति भने पोरेनी वृद्धि २४. સામાન્ય ધનની વૃદ્ધિ ઉપરાંત, ઉચ્ચ કેટિના દ્રવ્યને પણ વધારો થતો જોવામાં આવ્યું. આ ઉચ્ચ કોટિનું द्र०५ , २न, भथि, माती, ५ ५२वाण, शिक्षा, aleभ, जीरा, मारे, वैडूय २त्न, तिाक्षरत्न वगैरे.. | મનમાં માતાપિતાને વિચાર ફુરી આવ્યું કે આ બાળક ગર્ભમાં આવતાં જ ધનના ઢગલા થવા મંડયા, દુમને શરણે આવવા લાગ્યા, સેનું-ચાંદી– ૨ના અંબાર ખડકાવા મંડયા, રાજ્ય અને રાષ્ટ્ર અસીમપણે વધતાં ચાલ્યાં, માનસિક વિચારે ધાર્મિક અને આધ્યાત્મિક થવા લાગ્યા, મનમાંથી ॥५७१॥ For Private & Personal Use Only Amwww.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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