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________________ कल्पमञ्जरी टीका कुलेषु यक्षादिदेवगृहेषु, सभासु-जनोपवेशनस्थानेषु, प्रपासु-पानीयशालासु, आरामेषु-कदल्याद्याच्छादितस्त्रीपुंसक्रीडास्थानेषु, उद्यानेषु-पुष्पफलोपेतवृक्षशोभितबहुजनभोग्योद्यानिकास्थानेषु, बनेषु-अटवीषु, वनपण्डेषु= अनेकजातीयोत्तमक्षसमूहेषु, तथा-श्मशान-शून्यागार-गिरिकन्दर-शान्ति-शैलो-पस्थान-भवन-गृहेषु-तत्र-इमश्रीकल्पसूत्रे शानं प्रसिद्धं, शून्यागारं शून्यगृहं, गिरिकन्दरः पर्वतगुहा, शान्तिशैलोपस्थानभवनेषु प्रत्येकं गृहेण सम्बध्यते, तेन शान्तिगृहाम्-शान्तिकर्मस्थानानि, शेलगृहाः पर्वतमुत्कीर्य कृतभवनानि, उपस्थानगृहा: 'चौरा' इति प्रसिद्धानि जनोपस्थितिस्थानानि, भवनगृहा:-कुटुम्बिवसनस्थानानि, ततः श्मशानादीनां द्वन्द्वः, एतेषु स्थानेषु संनिक्षिप्तानियस्तानि महानिधानानि तिष्ठन्ति सन्ति तानि सिद्धार्थराजभवने संहरन्ति नयन्ति ।।०५२।। इनके अतिरिक्त वे महानिधान आपणों (बाजारों या दुकानों) में, यक्ष आदि के घरों में, सभाओं (जनता के बैठने के स्थानों) में, पानीघरों (प्याऊ) में, आरामों (कदली आदि से आच्छादित नर-नारियों के क्रीडास्थानों) में, उद्यानों (फूलों-फलों से युक्त बहुजनभोग्य बागों) में, वनों में, वनषण्डो (अनेक प्रकार के उत्तम जाति के वृक्षों के समूहों) में, श्मशानों में, तथा सूने घरों में, पर्वत की गुफाओं में, शान्तिकर्म करने के स्थानों में, शैलगृहों में, उपस्थानगृहों (चौरा-नाम से प्रसिद्ध जनों की उपस्थितिवाले स्थानों) में तथा भवनगृहो (कुटुम्बीजनों के निवासस्थानों) में भी थे। इन सब स्थानों में गड़े हुए पुराने खजानों को त्रिजुंभक देव लाकर राजा सिद्धार्थ के भण्डार भरने लगे। यहाँ इतने बहुसंख्यक स्थानों की गणना करने का अभिप्राय यह है कि यह धरा 'वसुन्धरा' है। इसमें पद-पद पर निधान हैं, किन्तु वे विशिष्ट प्रकृष्ट पुण्यशाली जीवों को ही प्राप्त हो सकते हैं। ' તદપરાન્ત તે મહાનિધાનો આપણે (બજાર કે દુકાન)માં, યક્ષ આદિનાં ઘરોમાં, સભાઓ (જનતાને सवानां स्थान)मां, पाय।। (411)मां, भाराभा (४६०ी माहि ५ मा छाहित नर-नारीमान हास्यानी)માં, બાગમાં, વનમાં, વનડે (અનેક પ્રકારનાં ઉત્તમ જાતનાં વૃક્ષોના સમૂહ)માં, મસામાં, તથા સૂનાં ઘરમાં, પર્વતની ગુફાઓમાં, શાન્તિકર્મ કરવાનાં સ્થાનમાં, શલગૃહમાં, ઉપસ્થાનગૃહ (ચારે નામથી પ્રસિદ્ધ માણસની હાજરીવાળાં સ્થાનો)માં તથા ભવનગૃહ (કુટુંબી જનેનાં નિવાસસ્થાન)માં પણ હતાં. તે બધાં સ્થાનમાં દાટેલા પુરાણા ખજાનાઓને ત્રિજભક દેવે લાવીને રાજા સિદ્ધાર્થના ભંડાર ભરવા લાગ્યા. मी मारी थी संध्याकामा स्थानानी गना ४२वान हेतु से छे मा ५२॥ “सुन्ध" छे. dain Educations inationwi ने से मना छ, परत पाय-ट-न्यथाजी ७वान प्राप्त य ई छ. सिद्धार्थ राजभवने त्रिजुम्भक देवकृत निधान मा समाहरणम् ॥५६९॥ Forvale Personal use only Reswww.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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