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श्रीकल्पसूत्रे
॥५६१
संघट्टन - विषमस्थानशयन - विषमस्थानोपवेशनोपवास- वेगविघात- रूक्ष- तीक्ष्ण-बहुभोजना-तिरागा-विशोका-तिक्षार सेवना - तिसार - मन- रेचन - हिक्काऽऽजीर्णतादिभिर्गर्भः स्वबन्धनतो मुक्तो भवति ।
अथ त्रिशला क्षत्रियाणी रोग-शोक-मोह-भय-परिश्रमादिरहिता सुखेन तिष्ठति । यतो रोगादयो गर्भस्य हानिकारका भवन्ति ।
सुश्रुतनामके वैद्यकग्रन्थे उक्तम् -- यदि गर्भवती स्त्री दिवा निद्रां कुर्यात् तदा गर्भोऽपि निद्रालुरलसो वा भवति, अञ्जनाञ्जनेन गर्भोऽन्धो भवति । रोदनेन गर्भो विकृतनयनो भवति । स्नानलेपनाभ्यां गर्भो
संघटन (EET लगना-टकर लगना), विषम जगह में शयन, विषम स्थान में बैठना, उपवास करना, मलमूत्रकी शंका को रोकना, रूखा तीखा और अधिक भोजन करना, अति राग, अति शोक, अति क्षारमय वस्तुओं का सेवन, अतिसार, वमन, रेचन, हिचकी, और अजीर्ण, इन कारणों से गर्भ अपने ब हो जाता है अर्थात् गर्भपात हो जाता है ।
त्रिशला क्षत्रियाणी रोग, शोक, मोह, भय और परिश्रम आदि से बच कर सुखपूर्वक रहती थी । क्यों कि रोग आदि गर्भ के लिए हानिकारक होते हैं। सुश्रुत - नामक वैद्यकग्रंथ में at fare और आलसी होता है।
कहा है- 'यदि गर्भवती स्त्री दिन में निद्रा लेती है तो गर्भस्थ बाळक आँखों में अंजन आंजने से अंधा होता है । रोने से गर्भस्थ बालक की
भार्गगमन, स्थ्मसन (सयसवु), पतन (घडवु ), पीडन (भगोने हमाववां), घावन (होउवु), संघट्टन (४२ सागवी), विषम भय्यामे शयन, विषभ स्थानमा मेसवु, उपवास रखो, भण-भूत्रनी हान्ने रोडवी, लूभु, तीपु અને વધારે પ્રમાણમાં લેાજન લેવું, અતિરાગ, અતિશેાક, અતિક્ષારવાળી વસ્તુએનુ સેવન, અતિસાર, ઉલટી, રેચ, હેડકી અને અણુ, એ કારણેાથી ગર્ભ પેાતાના બંધનમાંથી મુકત થઈ જાય છે, એટલે કે ગભપાત થઇ જાય છે.’ ત્રિશલા ક્ષત્રિયાણી રાગ, શેાક. મેહ, ભય અને પરિશ્રમ વગેરેથી મુકત થઈને સુખપૂર્ણાંક રહેતાં હતાં. કારણ કે રાગ વગેરે ગર્ભને હાનિકારક હાય છે.
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"सुत" नामना वैध थम छे" ઘણુસી અને આળસુ થાય છે, આંખામાં આંજણ
लपती श्री हिवसे निद्रा આંજવાથી આંધળા થાય છે, રાવાથી
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तो गर्भस्थ माण पशु ગર્ભસ્થ બાળકની આંખેામાં
प
कल्प
मञ्जरी
टी
कुलवृद्धश्रीणां
त्रिशलां
प्रत्युपदेशः
॥५६१॥
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