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________________ श्री कल्पसूत्रे ॥४९४ ॥ 【藏藏藏藏藏 ALALATA) हतपौर्वापर्यत्वम् ९, शिष्टत्त्रम् १०, असंदिग्धत्वम् ११, अपहृतान्योत्तरत्वरम् १२, हृदयग्राहित्यम् १३, देशकालाव्यतीतत्त्रम् १४, तत्त्वानुरूपत्वम् १५, अपकीर्णप्रसृतत्वम् १६, अन्योन्यप्रगृहीतत्त्रम् १७, अभिजातत्त्रम् १८, Jain Education national (६) दक्षिणत्व - भाषा में सरलता होना । (७) उपनीतरागत्व - श्रोताओं के मन में बहुमान उत्पन्न करनेवाली स्वर की विशेषता होना । (८) महार्थत्व - वाच्य अर्थ में महत्ता होना, थोडे से शब्दों में बहुत अर्थ भरा हुआ होना । (९) अव्याहतपौर्वापर्यत्व - वचनों में पूर्वापर विरोध न आना । (१०) शिष्ट - आपने इष्ट सिद्धान्त का निरूपण करना, अथवा वक्ता की शिष्टता सूचित करने वाला अर्थ कहना। (११) असंदिग्धत्व - ऐसी स्पष्टता के साथ तच का निरूपण करना कि श्रोता के मनमें तनिक भी सन्देह न रह जाय । (१२) अपहृतान्योत्तर - वचनका निर्दोष होना जिससे श्रोताओं को शंका-समाधान न करना पड़े । (१३) हृदयग्राहि - कठिन विषय को भी सरल ढंग से कहना, श्रोताओं के चित्त को आकर्षित कर लेना । (१४) देशकालाव्यतीतत्व - देशकाल के अनुसार कथन करना । (६) क्षित्व - भाषामा सरगना होवी. (૭) ઉષનીતરાગત્લ—શ્રોતાઓનાં મનમાં બહુમાન ઉત્પન્ન કરનારી સ્વરની વિશેષતા હોવી. (८) महार्थत्व- वाध्य अर्थमां महत्ता देवी, थोडा शब्दमां धो ? अर्थ लरेडी होवो. (૯) અવ્યાહતપૌર્વાષ ત-વચનેમાં પૂર્વાપર વિરોધ ન આવવા (૧૦) શિષ્ટત્ર—પેતાના ઈષ્ટ સિદ્ધાંતનું નિરૂપણુ કરવુ અથવા વક્તાની શિષ્ટતા સૂચિત કરનાર અર્થે કહેવા. (૧૧) અસંદિગ્ધત્વ-શ્રોતાના મનમાં સહેજ પણ સન્દેહ રહી ન જાય એવી સ્પષ્ટતાની સાથે નિરૂપણ કરવું (૧૨) અપહૃતાન્યેત્તર-વચન નિર્દોષ હેવા જોઇએ. જેથી શ્રોતાઓને શંકા-સમાધાન કરવું ન પડે, (૧૩) હૃદયગ્રાહિ——કઠિન વિષયને પણ સરળ રીતે કહેવે, શ્રોતાઓનાં ચિત્તને આકર્ષિત કરી લેવું, (१४) देशासाव्यतीतत्व- डेराअगने अनुसार कथन Use Only HAHREA कल्पमञ्जरी टीका पूर्ण कलश स्वप्नफलम्. ॥४९४ ॥ www.jainelibrary.org.
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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