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________________ श्रीकल्पसूत्र ||४६९॥ हितकरं सुखकरं शुभकरं सुकुमारपाणिपादम् अहीन - प्रतिपूर्ण - पञ्चेन्द्रिय- शरीरं लक्षण व्यञ्जन - गुणो-पपेतं मानोन्मान - प्रमाण- प्रतिपूर्ण - सुजात - सर्वाङ्ग-सुन्दराङ्गं शशिसौम्याकारं कान्तं प्रियदर्शनं सुरूपं दारकं प्रजनयिष्यसि ॥ सू० ३०॥ टीका- 'तए णं सा तिसला' इत्यादि - ततः - पतिप्रतिबोधनानन्तरं खलु वाक्यालङ्कारे, सा त्रिशला क्षत्रियाणी सिद्धार्थेन राज्ञा अभ्यनुज्ञाता - उपवेष्टुमाज्ञप्ता सती नानामणिकनकरत्नभक्तिचित्रे=नानामणिकनकरत्नानाम्=अनेकप्रकारकमणिस्वर्णरत्नानां भतया = विभागेन चित्रे = अद्भुते भद्रासने = भद्रासननामके आसनविशेषे - षण्णा = उपविष्टा आश्वस्ता = आश्वासं प्राप्ता - स्वस्था गतिजनितश्रमापगमात्, अतएव विश्वस्ता = निरुद्विग्ना क्षोभाभावात्, सुखासनवरगता = सुखेन उपविष्टा सती एवं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादीत्=अब्रवीत् - हेस्वामिन् ! ने वाले, सुकुमार कर चरण वाले, हीनता-रहित पूरी पाँचों इन्द्रियों से युक्त शरीर वाले, लक्षणों व्यंजनों और गुणों से सम्पन्न, मान उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण यथोचित अंशों की रचना से युक्त, सर्वांगसुन्दर, चन्द्रमा के समान सौम्य आकार वाले, कान्तियुक्त, प्रियदर्शन और सुरूप पुत्र को जन्म दोगी ॥ सू० ३०॥ टीका का अर्थ- 'तए णं सा' इत्यादि । पति को जगाने के बाद, त्रिशला देवी को राजा सिद्धार्थ ने आसन पर बैठने का आदेश दिया तो वह अनेक प्रकार के मणियों, स्वर्णों एवं रत्नों की रचना से अद्भुत भद्रासन नामक आसन पर बैठी । चलने के कारण उत्पन्न हुई थकावट के हट जाने से स्वस्थ हुई और इस कारण उद्वेग-क्षोभ दूर हो जाने से विश्वस्त हुई। सुखासन पर बैठी हुई त्रिशला ने इस प्रकार कहा - हे स्वामिन् ! उस (पूर्ववर्णित ) शय्या पर सोती-जागती अवस्था में चौदह महास्वप्नों कोહિત કરનાર, સુખ કરનાર, શુભ કરનાર, સુકુમાર હાથ-પગ વાળા, :હીનતારહિત પૂરી પાંચ ઇન્દ્રિયા યુક્ત શરીર વાળા, લક્ષણા વ્યંજનેા અને ગુણાવાળા, માન ઉન્માન અને પ્રમાણથી પરિપૂર્ણ પ્રમાણસરનાં અંગાની રચનાવાળા, સર્વાંગ સુંદર, ચન્દ્રમાના જેવા સૌમ્ય આકારવાળા, કાન્તિવાળા, પ્રિયદશન અને સુરૂપ પુત્રને જન્મ આપીશ (સ્૦૩૦) टीअन अर्थ- 'तपणं सा' इत्याहि पतिने गाड्या पछी, त्रिशसाहेवीने तेना पति राम सिद्धार्थे शासन पर બેસવાની આજ્ઞા કરી. ત્યારે તે અનેક પ્રકારના મણીઓ, સુત્ર અને રત્નાની રચના વડે અદ્ભુત લાગતાં ભદ્રાસન નામનાં આસન પર બેઠી. ચાલવાને લીધે પેદા થયેલ થાક દૂર થતાં તે સ્વસ્થ થઈ અને તે કારણે ઉદ્વેગ-ક્ષેાભ દૂર थवाथी ते विश्वस्त था. सुभासन पर ठेली त्रिशा या प्रभा ४धुं - "हे नाथ ? ते (पूर्ववति) शय्या पर For Private & Personal Use Only Jain Education national 營 HAAN MEM कल्प मञ्जरी टीका स्वप्न निवेदनम् . ॥४६९॥ wwww.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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