SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री कल्पसूत्रे ॥४२७॥ SATACEAS Jain Education International ६- चंदसुमिणे मूलम् — तो पुण सा गोक्खीर-णीर- फेण-रययकुंभ - कुंदा - बदायं चगोर-मण- मुहयं सयल-जणनयण - पल्हायण-करं दिसाकंतामुगुरं धत्रल-कमल-दली - बचाइ - कलं कुनुय-कुल- विगास - सीलं निसा - मुसमा -कुसलं विमलु-ज्जल-रयय - गिरिसिहर - विमलं कलधोयनिम्मलं विगयमलं सुक - किष्ण-पक्व - दुग - मज्झग - पुष्णमासी - विरायमाण- पुण्ण-कलं दिसामंडल - फारं-धयार - परिपाण - जातो -दर-ललिय- सामल - कलंकं सायर - तरलतर- तरंगोच्छालगं परिस-मासाई - पमाण - विहायगं जोइसचक्कणायगं अमयनिस्संदं नित्तंदं पुण्णचंदं पास ||सू० २०|| ६- चन्द्रस्वप्नः छाया - ततः पुनः सा गोक्षीर - नीर - फेन - रजत कुम्भ - कुन्दा-वदातं चकोर - मनः- मुखदं सकल-जननयन - महादनकरं दिक्कान्तामुकुरम् धवल - कमल - दलो- पचायि-करं कुमुद - कुल - विकास - शीलं निशा- सुषमाकुलं किलो-ज्ज्वल - रजतगिरि - शिखर - विमलं कलधौतनिर्मलं विगतमलं शुक्ल - कृष्ण - पक्ष- द्विक- मध्यग६- चन्द्रमा का स्वप्न मूल का अर्थ - 'ओ पुण सा' इत्यादि । मालायुगल देखने के पश्चात् छठे स्वम में त्रिशलादेवी ने चन्द्र को देखा। वह चन्द्र कैसा था सो कहते हैं-वह गाय के दूध, जल के फेन, चांदी के कलश तथा कुन्द के समान श्वेत वर्ण वाला था । चकोर के मनको सुखदायी, सब लोगों के नयनों को आनन्द देने वाला, दिशारूपी रमणी के दर्पण के समान, कुमुदों के पत्रों को प्रफुल्लित कर देने वाली कलाओं से युक्त था, अतएव कुमुदों के समूह को विकसित करने की प्रकृति वाला था, रात्रि की शोभा बढ़ाने में कुशल, निर्मल और उज्ज्वल रजत - शैल के शिखर के सदृश विमल, श्वेतवर्ण के सुवर्ण के समान निर्मल૬-ચંદ્રમાનું સ્વપ્ન भूणना अर्थ - ' तओ पुण सा' धत्याहि भाजानी भेडीने लेया माह, छठा स्वप्नमां, त्रिशला देवीओ ‘ચંદ્ર' ને જોયા. આ ચંદ્ર’ ગાયના દૂધ જેવા, પાણીના ફીણુ સમાન, ચાંદીના કળશ જેવા અને કુન્દ્રપુષ્પ જેવ સફેદ હતા. આવા ‘ચંદ્રમા' ચકાર પક્ષીના મનને સુખદાયી અને સર્વાંના મનને આન ંદ ઉપજાવનારા, દિશારૂપી રમણીના દર્પણુ સમાન, કુમદને પ્રફુલ્લિત કરવાવાળા, સેાળે કળાથી પરિપૂણુ હતા. આ ચંદ્રમા રાત્રિના રાજા અને પતિ ગણાવાથી રાત્રિને નિમાઁળ અને આલ્હાદક બનાવતા. રજત-ચાંદીના પહાડના શિખર સમાન શ્વેત સુવણ જેવા कल्प मञ्जरी टीका चन्द्रस्वम ॥४२७॥ www.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy